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________________ उत्तरखण्ड ] • गङ्गाकी महिमा, श्रीविष्णु, यमुना, गङ्गा, प्रयाग, काशी, गया एवं गदाधरकी स्तुति श्रीमत्पांशु त्रिवेणीपरिवृढमतुलं तीर्थराज प्रयागं गोऽलंकारप्रकाश स्वयममरवरैश्चार्चितं तं नमामि ॥ जो माघमासमें अपनी महिमा के विषय में अन्यत्र भी गर्जना करता है, प्रेमीजनोंके दूरसे भी अपना ध्यान और कीर्तन करनेपर जो बिना किसीकी सहायताके निरन्तर अभीष्ट फल प्रदान करनेवाला है, जिसकी धूलिराशि शोभासे सम्पन्न है, जो त्रिवेणीका स्वामी है, जिसकी संसारमें यानीह कहीं भी तुलना नहीं है तथा जिसका दिव्य स्वरूप अंशुमाली सूर्यके समान प्रकाशमान है, उस श्रेष्ठ देवताओंद्वारा पूजित तीर्थराज प्रयागको मैं प्रणाम करता हूँ। अस्माभिः सुतपोऽन्वतापि किमो ऽयज्यन्त किं वाध्वराः पात्रे दानमदायि किं बहुविधं किं वा सुराश्चार्चिताः । किं सत्तीर्थमसेवि किं द्विजकुलं पूजादिभिः सत्कृतं येन प्राप सदाशिवस्य शिवदा सा राजधानी स्वयम् ॥ अहो! हमलोगोंने क्या कोई उत्तम तपस्या की थी ? अथवा यज्ञोंका अनुष्ठान किया था ? या किसी सुपात्रको नाना प्रकारकी वस्तुओंका दान दिया था ? अथवा देवताओंकी पूजा की थी? या किसी उत्तम तीर्थका सेवन किया था ? अथवा ब्राह्मणवंशका पूजा आदिके द्वारा सत्कार किया था, जिससे भगवान् सदाशिवकी यह कल्याणदायिनी राजधानी काशी हमें स्वयं ही प्राप्त हो गयी ! भाग्यैर्मेऽधिगता हानेकजनुषां सर्वाघविध्वंसिनी सर्वाश्चर्यमयी मया शिवपुरी संसारसिन्धोस्तरी । लब्धं तज्जनुषः फलं कुलमलंचक्रे पवित्रीकृतः स्वात्मा चाप्यखिलं कृतं किमपरं सर्वोपरिष्टात् स्थितम् ॥ मेरे बड़े भाग्य थे, जो अनेक जन्मोंकी पापराशिका विध्वंस करनेवाली संसार-समुद्रके लिये नौकारूपा यह सर्वाश्चर्यमयी शिवपुरी मुझे प्राप्त हुई। इससे जन्म लेनेका फल मिल गया। मेरे कुलकी शोभा बढ़ गयी। मेरी अन्तरात्मा पवित्र हो गयी तथा मेरे सम्पूर्ण कर्तव्य पूर्ण हो गये। अधिक क्या कहूँ, अब मैं सर्वोपरि पदपर प्रतिष्ठित हो गया। जीवन्नरः पश्यति भद्रलक्षमेवं वदन्तीति मृषा न यस्मात् । तस्मान्मया वै वपुषेदृशेन प्राप्तापि काशी क्षणभङ्गुरेण ॥ • ६१७ मनुष्य जीवित रहे तो वह लाखों कल्याणकी बातें देखता है—ऐसी जो किंवदन्ती है, वह झूठी नहीं है; इसीलिये मैंने इस क्षणभर शरीरसे भी काशी-जैसी पुरीको प्राप्त कर लिया। काश्यां विधातुममरैरपि दिव्यभूमौ सत्तीर्थलिङ्गगणनार्चनतो न शक्या । गुप्तविवृतानि पुरातनानि सिद्धानि योजितकरः प्रणमामि तेभ्यः ॥ काशीपुरीकी दिव्य भूमिमें कितने उत्तम तीर्थ और लिङ्ग हैं, उनकी पूजनपूर्वक गणना करना देवताओंके लिये भी असंभव है। यहाँ गुप्त और प्रकटरूपसे जो-जो पुरातन सिद्धपीठ हैं, उन्हें मैं हाथ जोड़कर प्रणाम करता हूँ। किं भीत्या दुरितात्कृतात् किमु मुदा पुण्यैरगण्यैः कृतैः किं विद्याभ्यसनान्मदेन जडतादोषाद् विषादेन किम् । किं गर्वेण धनोदयादधनतातापेन किं भो जनाः स्नात्वा श्रीमणिकर्णिकापयसि चेद् विश्वेश्वरो दृश्यते ॥ मनुष्यो ! यदि श्रीमणिकर्णिकाके जलमें स्नान करके भगवान् विश्वनाथजीका दर्शन किया जाता हो तो पूर्वकृत पापोंसे भयकी क्या आवश्यकता है। अथवा किये हुए अगणित पुण्योंद्वारा प्राप्त होनेवाले आनन्दसे भी क्या लेना है। विद्याभ्यासको लेकर घमंड या मूर्खताके लिये खेद करनेसे क्या लाभ है ? धनकी प्राप्तिसे होनेवाले गर्व तथा निर्धनताके कारण होनेवाले संतापसे भी क्या प्रयोजन है । अल्पस्फीतिनिरामयापि तनुताप्रव्यक्तशक्त्यात्मता प्रोत्साहाक्यबलेन केवलमनोरागद्वितीयेन यत् । अप्राप्यापि मनोरथैरविषया स्वप्रप्रवृत्तेरपि प्राप्ता सापि गदाधरस्य नगरी सद्योऽपवर्गप्रदा ॥ जो स्वल्प समृद्धिसे युक्त होनेपर भी निरामय (नाशरहित) है, सूक्ष्मताके द्वारा ही जो अपनी शक्तिशालिता सूचित कर रही है, अप्राप्य होनेपर भी जो उत्साहयुक्त बल तथा विशुद्ध मानसिक अनुरागसे प्राप्त होती है, मनोरथोंकी भी जहाँतक पहुँच नहीं है, जो स्वप्रमें भी सुलभ नहीं होती, वह तत्काल मोक्ष प्रदान करनेवाली भगवान् गदाधरकी नगरी गया आज मुझे प्राप्त हुई है।
SR No.034102
Book TitleSankshipta Padma Puran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUnknown
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages1001
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size73 MB
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