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________________ ...... • अर्चयस्व हषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् . [ संक्षिप्त पद्मपुराण ब्रह्मा आदि देवता भी अपना काम छोड़कर जिस लोकमें पहुँचा देती हैं, उस तीर्थराज प्रयागकी जय हो। पुण्यमय सौभाग्यसे युक्त तीर्थका सेवन करते हैं तथा केषाधिजन्यकोटि-जति सुवचसा यामि यामीति यस्मिन् जहाँ दण्डधारी यमराज भी अपना दण्ड त्याग देते हैं, उस केषाजित्योषितानां नियतमतिपतेद् वर्षवृन्दं वरिष्ठम् । तीर्थराज प्रयागको जय हो। यः प्राप्तो भाग्यलक्षैर्भवति भवति नो वा स वाचामवाच्यो यत्सेवया , देवनदेवतादि- दीन, दिष्टया वेणीविशिष्ठो भवति दृगतिथिः किं प्रयागः प्रयागः ।। देवर्षयः ..... प्रत्यहमामनन्ति। 'मैं प्रयागमें जाऊँगा, जाऊँगा' इन सुन्दर यातोंमें ही स्वर्ग च सर्वोत्तमभूमिराज्यं - कितने ही लोगोंके करोड़ों जन्म बीत जाते हैं [और प्रयागकी स तीर्थराजो जयति प्रयागः ॥ यात्रा सुलभ नहीं होती] | कुछ लोग घरसे चल तो देते हैं, देवता, मनुष्य, ब्राह्मण तथा देवर्षि भी प्रतिदिन पर मार्गमें ही फंस जानेके कारण उनके अनेकों वर्ष समाप्त जिसके सेवनसे स्वर्म एवं सर्वोत्तम भूमण्डलका राज्य हो जाते हैं। लाखों बार भाग्यकी सहायता होनेपर भी जो प्राप्त करते हैं, उस तीर्थराज प्रयागकी जय हो। कभी प्राप्त होता है और कभी नहीं भी होता, वह त्रिवेणीएनासि हन्तीति प्रसिद्धवार्ता संगम-विशिष्ट उत्तम यज्ञभूमि प्रयाग वाणीसे परे है। क्या नामप्रतापेन दिशो द्रवन्ती। मेरा ऐसा भाग्य है कि वह मेरे नेत्रोंका अतिथि हो सके ? यस्य त्रिलोकी प्रतता यशोभिः ........ लोकानामक्षमार्णा मखकृतिषु कलौ स्वर्गकामैजपस्तु स तीर्थराजो जयति प्रयागः ॥ त्यादिस्तोत्रैर्वचोभिः कथममरपदप्राप्तिचिन्तातुराणाम्। प्रयाग अपने नामके प्रतापसे समस्त पापोंका नाश अग्निष्टोमाश्वमेधप्रमुखमखफलं सम्यगालोच्य साङ्ग कर डालता है, यह प्रसिद्ध वार्ता सम्पूर्ण दिशाओमें फैली ब्रह्मायैस्तीर्थराजोऽभिमतद उपदिष्टोऽयमेव प्रयागः ॥ हुई है। जिसके सुयशसे सारी त्रिलोकी आच्छादित है, . कलियुगमें मनुष्य स्वर्गकी इच्छा होते हुए भी उस तीर्थराज प्रयागको जय हो। यज्ञ-यगादि करनेमें असमर्थ होनेके कारण जप, स्तुति, धत्तोऽभितश्चामरचारकान्ती स्तोत्र एवं पाठ आदिके द्वारा किस प्रकार अमरपदकी सितासिते यत्र सरिद्वरेण्ये। प्राप्ति हो-इस चिन्तासे आतुर होंगे; उनको अङ्गोसहित आधो बटश्छत्रमिवातिभातिका अनिष्टोम और अश्वमेध आदि यज्ञोका फल कैसे स तीर्थराजो जयति प्रयागः ॥ मिले- इसकी भलीभाँति आलोचना करके ब्रह्मा आदि जहाँ दोनों किनारे श्याम और श्वेत सलिलसे देवताओंने इस तीर्थराज प्रयागको ही सब प्रकारके सुशोभित दो श्रेष्ठ सरिताएँ यमुना और गङ्गा चँवरकी अभीष्ट फलोंका दाता बताया है। ...... मनोहर कात्ति धारण कर रही है और आदि वट मया प्रमादातुरतादिदोषतः . (अक्षयवट) छत्रके समान सुशोभित होता है, उस संध्याविधिनों समुपासितोऽभूत् । तीर्थराज प्रयागकी जय हो। - घेदन संध्यां चरतोऽप्रमादतः... ब्राहीनपुत्रीत्रिपथात्रिवेणी-.. संध्यास्तु पूर्णाखिलजन्मनोऽपि मे ॥ समागमेनाक्षतयागमात्रान्। ३ यदि मैंने प्रमाद और आतुरता आदि दोषोंके कारण यत्राप्लुतान् ब्रह्मपदं नयन्ति - भलीभांति संध्योपासना नहीं की है तो यहाँ सावधानता स तीर्थराजो जयति प्रयागः ॥ पूर्वक संध्या करनेसे मेरे सम्पूर्ण जन्मको संध्योपासना .... सरस्वती, यमुना और गङ्गा-ये तीन नदियाँ जहाँ पूर्ण हो जाय।। डुबकी लगानेवाले मनुष्योंको, जो त्रिवेणी-संगमके अन्यत्रापि प्रगजन्महिमनि तपसि प्रेमिभिर्विप्रकृष्टसम्पर्कसे अक्षत यागफलको प्राप्त हो चुके हैं, ब्रह्म- ध्यांत: संकीर्तितो योऽभिमतपदविधातानिशं नियंपेक्षम् ।
SR No.034102
Book TitleSankshipta Padma Puran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUnknown
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages1001
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size73 MB
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