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________________ ८४२ . अर्चयस्य हृषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् . [संक्षिप्त पयपुराण . . . . . . . . . . . . . . . . . .. . . . . .. . . . . . . . .। . . . . . . . . . . . . . . . . . . . सोलहवे अध्यायके कुछ श्लोकोका जप किया करता हैं. नगरमें आनेपर उन्होंने अपने राजकुमारको राज्यपर उसीसे ये सारी सिद्धियाँ प्राप्त हुई हैं। अभिषिक्त कर दिया तथा स्वयं गीताके सोलहवें श्रीमहादेवजी कहते हैं-तब हाथीका कौतूहल अध्यायका जप करके परमगति प्राप्त की। देखनेको इच्छा छोड़कर राजा ब्राह्मणदेवताको साथ ले अपने महलमें आये। वहाँ शुभ मुहूर्त देखकर एक लाख स्वर्ण-मुद्राओकी दक्षिणा दे उन्होंने ब्राह्मणको संतुष्ट किया और उनसे गीता-मन्त्रको दीक्षा ली। गीताके सोलहवे अध्यायके कुछ श्लोकोका अभ्यास कर लेनेके बाद उनके मनमें हाथीको छोड़कर उसके कौतुक देखनेकी इच्छा जाग्रत् हुई। फिर तो एक दिन सैनिकोंके साथ बाहर निकलकर राजाने हाथीवानोंसे उसी मत्त गजराजका बन्धन खुलवाया। उन्हें भयकी बात भूल गयी। राज्यके सुखविलासके प्रति आदरका भाव नहीं रहा । वे अपना जीवन तृणवत् समझकर हाथीके सामने चले गये। साहसी मनुष्योंमें अग्रगण्य राजा खङ्गबाहु मन्त्रपर विश्वास करके हाथीके समीप गये और मदकी अनवरत धारा बहाते हुए उसके गण्डस्थलको हाथसे छूकर सकुशल लौट आये। कालके मुखसे धार्मिक और खलके मुखसे साधु पुरुषकी भाँति राजा उस गजराजके मुखसे बचकर निकल आये। श्रीमद्भगवद्गीताके सत्रहवें और अठारहवें अध्यायोंका माहात्म्य श्रीमहादेवजी कहते हैं-पार्वती ! सोलहवें उसके प्राण निकल गये। इस प्रकार कालवश मृत्युको अध्यायका माहात्म्य बतलाया गया। अब सत्रहवें प्राप्त होनेके बाद उसे हाथोकी ही योनि मिली और अध्यायकी अनन्त महिमा श्रवण करो। राजा खड्गबाहुके सिंहलद्वीपके महाराजके यहाँ उसने अपना बहुत समय पुत्रका दुःशासन नामक एक नौकर था। वह बड़ी खोटी व्यतीत किया। बुद्धिका मनुष्य था। एक बार वह माण्डलिक सिंहलद्वीपके राजाको महाराज खड्गबाहुसे बड़ी राजकुमारोंके साथ बहुत धनकी बाजी लगाकर हाथीपर मैत्री थी, अतः उन्होंने जलके मार्गसे उस हाथीको चढ़ा और कुछ ही कदम आगे जानेपर लोगोंके मना मित्रकी प्रसन्नताके लिये भेज दिया। एक दिन राजाने करनेपर भी वह मूढ़ हाथीके प्रति जोर-जोरसे कठोर श्लोककी समस्या-पूर्तिसे सन्तुष्ट होकर किसी कविको शब्द करने लगा। उसकी आवाज सुनकर हाथी क्रोधसे पुरस्काररूपमें वह हाथी दे दिया और उन्होंने सौ अंधा हो गया और दुःशासन पैर फिसल जानेके कारण स्वर्ण-मुद्राएँ लेकर उसे मालव-नरेशके हाथ बेच दिया। पृथ्वीपर गिर पड़ा। दुःशासनको गिरकर कुछ-कुछ कुछ काल व्यतीत होनेपर वह हाथी यत्नपूर्वक पालित उच्छ्वास लेते देख कालके समान निरङ्कश हाथीने होनेपर भी असाध्य ज्वरसे ग्रस्त होकर मरणासन्न हो क्रोधमें भरकर उसे ऊपर फेक दिया। ऊपरसे गिरते ही गया। हाथीवानोंने जब उसे ऐसी शोचनीय अवस्थामें
SR No.034102
Book TitleSankshipta Padma Puran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUnknown
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages1001
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size73 MB
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