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________________ • नसिंहावतार एवं प्रहादजीकी कथा . नृसिंहावतार एवं प्रह्लादजीकी कथा महादेवजी कहते हैं-पार्वती! दितिसे इस पृथ्वीको उखाड़ लिया और सिरपर रखकर रसातलमें कश्यपजीके दो महाबली पुत्र हुए थे, जिनका नाम चला गया। यह देख सम्पूर्ण देवता भयसे पीडित हो हिरण्यकशिपु और हिरण्याक्ष था। वे दोनों महापराक्रमी हाहाकार करने लगे और रोग-शोकसे रहित भगवान् और सम्पूर्ण दैत्योंके स्वामी थे। उनके दैत्य-योनिमें नारायणको शरणमें गये। उस अद्भुत वृत्तान्तको जानकर आनेका कारण इस प्रकार है। वे पूर्वजन्ममें जय-विजय विश्वरूपधारी जनार्दनने वाराहरूप धारण किया। उस नामक श्रीहरिके पार्षद थे और श्वेतद्वीपमें द्वारपालका समय उनकी बड़ी-बड़ी दाढ़ें और विशाल भुजाएँ थीं। काम करते थे। एक समय सनकादि योगीश्वर भगवान्का उन परमेश्वरने अपनी एक दाढ़से उस दैत्यपर आघात दर्शन करनेके लिये उत्सुक हो श्वेतद्वीपमें आये। किया। इससे उसका विशाल शरीर कुचल गया और महाबली जय-विजयने उन्हें बीच में ही रोक दिया। इससे वह अधम दैत्य तुरंत ही मर गया । पृथ्वीको रसातलमें सनकादिने उन्हें शाप दे दिया-'द्वारपालो ! तुम दोनों पड़ी देख भगवान् वाराहने उसे अपनी दाढ़पर उठा लिया भगवान्के इस घामका परित्याग करके भूलोकमें चले और उसे पहलेकी भाँति शेषनागके ऊपर स्थापित करके जाओ।' इस प्रकार शाप देकर वे मुनीश्वर वहीं ठहर स्वयं कच्छपरूपसे उसके आधार बन गये। गये। भगवानको यह बात मालूम हो गयी और उन्होंने वाराहरूपधारी महाविष्णुको वहाँ देखकर सम्पूर्ण देवता सनकादि महात्माओं तथा दोनों द्वारपालोंको भी बुलाया। और मुनि भक्तिसे मस्तक झुकाकर उनकी स्तुति करने निकट आनेपर भूतभावन भगवान्ने जय-विजयसे लगे। स्तुतिके पश्चात् उन्होंने गन्ध, पुष्प आदिसे कहा-'द्वारपालो ! तुमलोगोंने महात्माओका अपराध श्रीहरिका पूजन किया। तब भगवान्ने उन सबको किया है। अतः तुम इस शापका उल्लङ्घन नहीं कर मनोवाञ्छित वरदान दिया। इसके बाद वे महर्षियोंके सकते। तुम यहाँसे जाकर या तो सात जन्मोंतक मेरे मुखसे अपनी स्तुति सुनते हुए वहीं अन्तर्धान हो गये। पापहीन भक्त होकर रहो या तीन जन्मोंतक मेरे प्रति अपने भाई हिरण्याक्षको मारा गया जान महादैत्य शत्रुभाव रखते हुए समय व्यतीत करो।' हिरण्यकशिपु मेरुगिरिके पास जा मेरा ध्यान करते हुए यह सुनकर जय-विजयने कहा-मानद ! हम तपस्या करने लगा। पार्वती ! उस महाबली दैत्यने एक अधिक समयतक आपसे अलग पृथ्वीपर रहनेमें हजार दिव्य वर्षातक केवल वायु पीकर जीवन-निर्वाह असमर्थ है। इसलिये केवल तीन जन्मोतक ही शत्रुभाव किया और 'ॐ नमः शिवाय' इस पञ्चाक्षर मन्त्रका धारण करके रहेंगे। जप करते हए वह सदा मेरा पूजन करता रहा। तब मैंने ऐसा कहकर वे दोनों महाबली द्वारपाल कश्यपके प्रसन्न होकर उस महान् असुरसे कहा-'दितिनन्दन ! वीर्यसे दितिके गर्भमें आये और महापराक्रमी असुर तुम्हारे मनमें जो इच्छा हो, उसके अनुसार वर माँगो।' होकर प्रकट हुए। उनमें बड़ेका नाम हिरण्यकशिपु था तब वह मुझे प्रसन्न जानकर बोला-'भगवन् ! देवता, और छोटेका हिरण्याक्ष । वे दोनों सम्पूर्ण विश्वमें विख्यात असुर, मनुष्य, गन्धर्व, नाग, राक्षस, पशु, पक्षी, मृग, हुए। उन्हें अपने बल और पराक्रमपर बड़ा अभिमान सिद्ध, महात्मा, यक्ष, विद्याधर और कित्ररोसे, समस्त था। हिरण्याक्ष मदसे उन्मत्त रहता था। उसका शरीर रोगोंसे, सब प्रकारके अस्त्र-शस्त्रोंसे तथा सम्पूर्ण कितना बड़ा था या हो सकता था इसके लिये कोई महर्षियोंसे भी मेरी मृत्यु न हो सके-यह वरदान निश्चित मापदण्ड नहीं था। उसने अपनी हजारों दीजिये।' 'एवमस्तु' कहकर मैंने उसे वरदान दे दिया। भुजाओंसे पर्वत, समुद्र, द्वीप और सम्पूर्ण प्राणियोसहित मुझसे महान् वर पाकर वह महाबली दैत्य इन्द्र और
SR No.034102
Book TitleSankshipta Padma Puran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUnknown
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages1001
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size73 MB
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