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________________ ९३८ . अर्थयस्व वीकेशं यदीच्छसि परं पदम् • *************..........................................EE विष्णुकी प्रियतमा लक्ष्मीदेवी! आप हमलोगोंपर प्रसन्न हों और श्रीविष्णुके वक्षःस्थलमें सदा निवास करें। कभी भगवान् से अलग न हों तथा तीनों लोकोंका भी कभी परित्याग न करें। देवि! यही हमारे लिये श्रेष्ठ वर है। जगन्माता ! आपको नमस्कार है। हम आपसे यही चाहते हैं। [ संक्षिप्त पद्मपुराण देवताओंके ऐसा कहनेपर श्रीनारायणकी प्रियतमा लोकमाता महेश्वरी लक्ष्मीने 'एवमस्तु' कहकर उनकी प्रार्थना स्वीकार की। तदनन्तर क्षीरसागरपर भगवान् नारायण और ब्रह्माजी भी प्रकट हुए। देवताओंने जनार्दनको नमस्कार करके उनका स्तवन किया और प्रसन्नवदन हो, हाथ जोड़कर कहा-' - 'सर्वेश्वर ! आप अपनी प्रियतमा और महारानी लक्ष्मीदेवीको, जो कभी आपसे अलग होनेवाली नहीं है, जगत्की रक्षाके लिये ग्रहण कीजिये।' ऐसा कहकर ब्रह्मा आदि देवता और मुनियोंने नाना प्रकारके रत्नोंसे बने हुए बालसूर्यके समान तेजस्वी दिव्य पीठपर भगवान् विष्णु और भगवती लक्ष्मीको बिठाया तथा नेत्रोंसे आनन्दके आँसू बहाते हुए उन्होंने दिव्य वस्त्र, दिव्य माला, रत्नमय आभूषण एवं अप्राकृत दिव्य फलोंसे उन दोनोंका पूजन किया। क्षीरसागरसे जो कोमल दलोंवाली तुलसीदेवी प्रकट हुई थीं, उनके द्वारा उन्होंने लक्ष्मीजीके युगल चरणोंका अर्चन किया। फिर तीन बार प्रदक्षिणा और बारंबार नमस्कार करके दिव्य स्तोत्रोंसे स्तुति की। इससे सर्वदेवेश्वर भगवान् श्रीहरिने लक्ष्मीसहित प्रसन्न होकर देवताओंको मनोवाञ्छित वरदान दिया। तबसे देवता और मनुष्य आदि प्राणी बहुत प्रसन्न रहने लगे। उनके यहाँ धन-धान्यकी प्रचुर वृद्धि हुई और वे नीरोग होकर अत्यन्त सुखका अनुभव करने लगे। इसके बाद लक्ष्मीसहित भगवान् विष्णुने प्रसन्न होकर सम्पूर्ण लोकोंके हितके लिये समस्त महामुनियों और देवताओंसे कहा - ' -'मुनियो और महाबली देवताओ! तुम सब लोग सुनो — एकादशी तिथि परम पुण्यमयी है। वह सब उपद्रवोंको शान्त करनेवाली है। तुमलोगोंने लक्ष्मीका दर्शन पानेके लिये इस तिथिको उपवास किया है; इसलिये यह द्वादशी तिथि मुझे सदा प्रिय होगी। आजसे जो लोग एकादशीको उपवास करके द्वादशीको प्रातःकाल सूर्योदय होनेपर बड़ी श्रद्धा के साथ लक्ष्मी और तुलसीके साथ मेरा पूजन करेंगे, वे सब बन्धनोंसे मुक्त होकर मेरे परम पदको प्राप्त होंगे।' ऐसा कहकर सनातन परमात्मा भगवान् विष्णु मुनियोंके द्वारा अपनी स्तुति सुनते हुए लक्ष्मीजीके निवासस्थान क्षीरसागरमें चले गये। वहाँ सूर्यके समान तेजोमय विमानपर शेषनागकी शय्याके ऊपर विशाललोचना भगवती रमाके साथ रहने लगे। वे देवताओंको दर्शन देनेके लिये सदा ही वहाँ निवास करते हैं। तदनन्तर सब देवता कच्छपरूपधारी सनातन भगवान्‌का भक्तिपूर्वक पूजन करके प्रसन्नचित हो उनकी स्तुति करने लगे। इससे उन्हें बड़ी प्रसन्नता हुई और वे बोले- 'देवेश्वरो। तुम्हारे मनमें जैसी इच्छा हो, वैसा वर माँगो ।' देवता बोले-महाबली देवेश्वर ! आप शेषनाग और दिग्गजोंकी सहायताके लिये सात द्वीपोंवाली इस पृथ्वीको अपनी पीठपर धारण कीजिये । देवताओंकी प्रार्थना सुनकर विश्वभावन भगवान्ने बड़ी प्रसन्नताके साथ कहा- -'एवमस्तु' (ऐसा ही हो) । तबसे उन्होंने सातों द्वीपोंसहित पृथ्वीको अपनी पीठपर धारण किया। तदनन्तर महर्षियोंसहित देवता, गन्धर्व, दैत्य, दानव तथा मानव भगवान्‌की आज्ञा ले अपने-अपने लोकको चले गये। तबसे ब्रह्मा आदि देवता, सिद्ध, मनुष्य योगी तथा मुनिश्रेष्ठ भगवान्‌की आज्ञा मानकर बड़ी भक्तिके साथ एकादशी तिथिको उपवास और द्वादशी तिथिको भगवान्‌का पूजन करने लगे ।
SR No.034102
Book TitleSankshipta Padma Puran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUnknown
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages1001
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size73 MB
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