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________________ पातालखण्ड ] • वैशाख-स्नानसे पाँच प्रेतोंका उद्धार तथा 'पाप-प्रशमन' नामक स्तोत्रका वर्णन . ५८७ प्रसन्न हो गया है। आप-जैसे साधु पुरुषके पुण्यमय लगाओ। नर्मदाके जलका मुनिलोग भी सेवन करते हैं, दर्शनसे हमारे पातकोंके अन्त होनेको सूचना मिल रही वह समस्त पापोंके भयका नाश करनेवाला है। मुनिके यों है। स्वामिन् ! कोई ऐसा उपाय बताइये, जिससे कहनेपर वे सब पापी उनके साथ अद्भुत पुण्य प्रदान हमलोगोंके पापोंका नाश हो जाय। प्रभो! आप करनेवाली नर्मदाकी प्रशंसा करते हुए उसके तटपर गये। वेदार्थके ज्ञाता और परम दयालु जान पड़ते हैं; आपसे किनारे पहुँचकर ब्राह्मणश्रेष्ठ मुनिशर्माका चित्त प्रसन्न हो हमें अपने उद्धारको बड़ी आशा है। गया। उन्होंने वेदोक्त विधिके अनुसार नर्मदाके जलमें मुनिशर्माने कहा-तुमलोगोंने अज्ञानवश पाप प्रातःस्रान किया। उपर्युक्त पाँचों पापियोंने भी ब्राह्मणके किया, किन्तु इसके लिये तुम्हारे हदयमें अनुताप है तथा कहनेसे ज्यों ही नर्मदामें डुबकी लगायी, त्यों ही उनके तुम सब-के-सव सत्य बोल रहे हो; इस कारण तुम्हारे शरीरका रंग बदल गया; वे तत्काल सुवर्णक समान ऊपर अनुग्रह करना मेरा कर्तव्य है। मैं अपनी भुजा कान्तिमान् हो गये। फिर मुनिशर्माने सब लोगोंके सामने ऊपर उठाकर कहता हूँ, मेरी सत्य बातें सुनो । पूर्वकालमें उन्हें पापप्रशमन नामक स्तोत्र सुनाया। जब मुनियोंका समुदाय एकत्रित हुआ था, उस समय भूपाल ! अब तुम पापप्रशमन नामक स्तोत्र सुनो। मैंने महर्षि अङ्गिराके मुखसे जो कुछ सुना था, वहीं इसका भक्तिपूर्वक श्रवण करके भी मनुष्य पापराशिसे वेद-शास्त्रों में भी देखा; वह सबके लिये विश्वास करने मुक्त हो जाता है। इसके चिन्तन मात्रसे बहुतेरे पापी शुद्ध योग्य है। मेरी आराधनासे संतुष्ट हुए स्वयं भगवान् हो चुके हैं। इसके सिवा, और भी बहुत-से मनुष्य इस विष्णुने भी पहले ऐसी ही बात बतायी थी। वह इस स्तोत्रका सहारा लेकर अज्ञानजनित पापसे मुक्त हो गये प्रकार है। भोजनसे बढ़कर दूसरा कोई तृप्तिका साधन है। जब मनुष्योंका चित्त परायी स्त्री, पराये धन तथा नहीं है। पितासे बढ़कर कोई गुरु नहीं है। ब्राह्मणोंसे जीव-हिंसा आदिकी ओर जाय तो इस प्रायश्चित्तरूपा उत्तम दूसरा कोई पात्र नहीं है तथा भगवान् विष्णुसे श्रेष्ठ स्तुतिकी शरण लेनी चाहिये। यह स्तुति इस प्रकार हैदूसरा कोई देवता नहीं है। गङ्गाको समानता करनेवाला विष्णवे विष्णवे नित्यं विष्णवे विष्णवे नमः। कोई तीर्थ, गोदानको तुलना करनेवाला कोई दान, नमामि विष्णु चित्तस्थमहङ्कारगतं हरिम् ॥ गायत्रीके समान जप, एकादशीके तुल्य व्रत, भार्याके चित्तस्थमीशमव्यक्तमनन्तमपराजितम् । सदृश मित्र, दयाके समान धर्म तथा स्वतन्त्रताके समान विष्णुमीयमशेषाणामनादिनिधनं हरिम् ॥ सुख नहीं है। गार्हस्थ्यसे बढ़कर आश्रम और सत्यसे सम्पूर्ण विश्वमें व्यापक भगवान् श्रीविष्णुको सर्वदा बढ़कर सदाचार नहीं है। इसी प्रकार संतोषके समान नमस्कार है। विष्णुको बारम्बार प्रणाम है। मैं अपने सुख तथा वैशाख मासके समान महान् पापोंका अपहरण चित्तमें विराजमान विष्णुको नमस्कार करता है। अपने करनेवाला दूसरा कोई मास नहीं है। वैशाख मास अहङ्कारमें व्याप्त श्रीहरिको मस्तक झुकाता हूँ। श्रीविष्णु भगवान् मधुसूदनको बहुत ही प्रिय है। गङ्गा आदि चित्तमें विराजमान ईश्वर (मन और इन्द्रियोंके शासक), तीर्थोंमें तो वैशाख-नानका सुयोग अत्यन्त दुर्लभ है। अव्यक्त, अनन्त, अपराजित, सबके द्वारा स्तवन उस समय गङ्गा, यमुना तथा नर्मदाकी प्राप्ति कठिन होती करनेयोग्य तथा आदि-अन्तसे रहित हैं; ऐसे श्रीहरिको मैं है। जो शुद्ध हृदयवाला मनुष्य भगवान्के भजनमें तत्पर नित्य-निरन्तर प्रणाम करता हूँ। हो पूरे वैशाखभर प्रातःकाल गङ्गास्नान करता है, वह विष्णुश्चित्तगतो यन्मे विष्णुर्बुद्धिगतश्च यत् । सब पापोंसे मुक्त होकर परम गतिको प्राप्त होता है। योऽहङ्कारगतो विष्णुयों विष्णुमयि संस्थितः ॥ इसलिये पुण्यके सारभूत इस वैशाख मासमें तुम करोति कर्तभूतोऽसौ स्थावरस्य चरस्य च। सभी पातकी मेरे साथ नर्मदा-तटपर चलो और उसमें गोते तत्पापं नाशमायाति तस्मिन् विष्णौ विचिन्तिते ॥
SR No.034102
Book TitleSankshipta Padma Puran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUnknown
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages1001
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size73 MB
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