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________________ ५८८ • अर्जयस्व हृषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् • *********..................................................................***** जो विष्णु मेरे चित्तमें विराजमान हैं, जो विष्णु मेरी बुद्धिमें स्थित हैं, जो विष्णु मेरे अहङ्कारमें व्याप्त हैं तथा जो विष्णु सदा मेरे स्वरूपमें स्थित हैं, वे ही कर्ता होकर सब कुछ करते हैं। उन विष्णुभगवान्‌का चिन्तन करनेपर चराचर प्राणियोंका सारा पाप नष्ट हो जाता है। ध्यातो हरति यः पापं स्वप्रे दृष्टश्च पापिनाम् । तमुपेन्द्रमहं विष्णुं नमामि प्रणतप्रियम् ॥ जो ध्यान करने और स्वप्रमें दीख जानेपर भी पापियोंके पाप हर लेते हैं तथा चरणों में पड़े हुए शरणागत भक्त जिन्हें अत्यन्त प्रिय हैं, उन वामनरूपधारी भगवान् श्रीविष्णुको नमस्कार करता हूँ। जगत्यस्मिन्निरालम्बे हाजमक्षरमव्ययम् । हस्तावलम्बनं स्तोत्रं विष्णुं वन्दे सनातनम् ॥ जो अजन्मा, अक्षर और अविनाशी हैं तथा इस अवलम्बशून्य संसारमें हाथका सहारा देनेवाले हैं, स्तोत्रोंद्वारा जिनकी स्तुति की जाती है, उन सनातन श्रीविष्णुको मैं प्रणाम करता हूँ। सर्वेश्वरेश्वर विभो परमात्मन्नधोक्षज । हृषीकेश हषीकेश हवीकेश नमोऽस्तु ते ॥ हे सर्वेश्वर ! हे ईश्वर ! हे व्यापक परमात्मन् ! हे अधोक्षज ! हे इन्द्रियोंका शासन करनेवाले अन्तर्यामी हृषीकेश ! आपको बारम्बार नमस्कार है। नृसिंहानन्त गोविन्द भूतभावन केशव । दुरुक्तं दुष्कृतं ध्यातं शमयाशु जनार्दन ॥ हे नृसिंह ! हे अनन्त ! हे गोविन्द ! हे भूतभावन ! हे केशव ! हे जनार्दन! मेरे दुर्वचन, दुष्कर्म और दुचिन्तनको शीघ्र नष्ट कीजिये । यन्मया चिन्तितं दुष्टं स्वचित्तवशवर्तिना । आकर्णय महाबाहो तच्छमं नय केशव ॥ महाबाहो ! मेरी प्रार्थना सुनिये - अपने चित्तके वशमें होकर मैंने जो कुछ बुरा चिन्तन किया हो, उसको शान्त कर दीजिये। ब्रह्मण्यदेव गोविन्द परमार्थपरायण । जगन्नाथ जगद्धातः पापं शमय मेऽच्युत ॥ 'ब्राह्मणोंका हित साधन करनेवाले देवता गोविन्द ! [ संक्षिप्त पद्मपुराण ************************ परमार्थमें तत्पर रहनेवाले जगन्नाथ ! जगत्‌को धारण करनेवाले अच्युत ! मेरे पापोंका नाश कीजिये । यथापराहे सायाह्ने मध्याह्ने च तथा निशि । कायेन मनसा वाचा कृतं पापमजानता ॥ जानता च हृषीकेश पुण्डरीकाक्ष माधव । नामत्रयोच्चारणतः सर्व यातु मम क्षयम् ॥ मैंने पूर्वाह्न, सायाह, मध्याह तथा रात्रिके समय शरीर, मन और वाणीके द्वारा, जानकर या अनजानमें जो कुछ पाप किया हो, वह सब 'हृषीकेश पुण्डरीकाक्ष और माधव' – इन तीन नामोंके उच्चारणसे नष्ट हो जाय। शारीरं मे हृषीकेश पुण्डरीकाक्ष मानसम् । पापं प्रशममायातु वाकृतं मम माधव ॥ - हृषीकेश ! आपके नामोच्चारणसे मेरा शारीरिक पाप नष्ट हो जाय, पुण्डरीकाक्ष ! आपके स्मरणसे मेरा मानस पाप शान्त हो जाय तथा माधव! आपके नाम कीर्तनसे मेरे वाचिक पापका नाश हो जाय। यद् भुञ्जानः पिबंस्तिष्ठन् स्वपञ्जाप्रद् यदा स्थितः । अकार्य पापमर्थार्थं कायेन मनसा गिरा ॥ महदल्प च यत्पापं दुर्योनिनरकावहम् । तत्सर्व विलयं यातु वासुदेवस्य कीर्तनात् ॥ मैंने खाते पीते, खड़े होते, सोते जागते तथा ठहरते समय मन, वाणी और शरीरसे, स्वार्थ या धनके लिये जो कुत्सित योनियों और नरकोंकी प्राप्ति करानेवाला महान् या थोड़ा पाप किया है, वह सब भगवान् वासुदेवका नामोच्चारण करनेसे नष्ट हो जाय। परं ब्रह्म परं धाम पवित्रं परमं च यत् । अस्मिन् सङ्कीर्तिते विष्णौ यत् पापं तत् प्रणश्यतु ।। जिसे परब्रह्म, परम धाम और परम पवित्र कहते हैं, वह तत्त्व भगवान् विष्णु ही हैं; इन श्रीविष्णुभगवान्का कीर्तन करनेसे मेरे जो भी पाप हों, वे नष्ट हो जायें। यत्प्राप्य न निवर्तन्ते गन्धस्पर्शविवर्जितम् । सूरयस्तत्पदं विष्णोस्तत्सर्वं मे भवत्वलम् ॥ जो गन्ध और स्पर्शसे रहित है, ज्ञानी पुरुष जिसे पाकर पुनः इस संसारमें नहीं लौटते, वह श्रीविष्णुका ही परम पद है। वह सब मुझे पूर्णरूपसे प्राप्त हो जाय।
SR No.034102
Book TitleSankshipta Padma Puran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUnknown
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages1001
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size73 MB
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