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________________ सृष्टिखण्ड ] • सप्तर्षि-आश्रमके प्रसङ्गमें सप्तर्षियोंके अलोभका वर्णन, अन्नदानादि धर्मोकी प्रशंसा . ७३ इन्हींको शान्त बुद्धिवाले संतों और ऋषियोंने दम कहा वालोंको स्वयं निन्दा न करे। अपने मनको रोके । जो उस है। धर्म, मोक्ष तथा स्वर्ग-ये सभी दमके अधीन हैं। समय अपने चित्तको वशमें कर लेता है, वह मानो जो अपना अपमान होनेपर क्रोध नहीं करता और सम्मान अमृतसे स्नान करता है। वृक्षोंके नीचे रहना, साधारण होनेपर हर्षसे फूल नहीं उठता, जिसकी दृष्टि में दुःख और वस्त्र पहनना, अकेले रहना, किसीकी अपेक्षा न रखना सुख समान हैं, उस धीर पुरुषको प्रशान्त कहते हैं। और ब्रह्मचर्यका पालन करना-ये सब परमगतिको जिसका अपमान होता है, वह साधु पुरुष तो सुखसे प्राप्त करानेवाले होते हैं। जिसने काम और क्रोधको जीत सोता और सुखसे जागता है तथा उसकी बुद्धि लिया, वह जंगलमें जाकर क्या करेगा? अभ्याससे कल्याणमयी होती है। परन्तु अपमान करनेवाला मनुष्य शास्त्रकी, शीलसे कुलकी, सत्यसे क्रोधका तथा मित्रके स्वयं नष्ट हो जाता है। अपमानित पुरुषको चाहिये कि द्वारा प्राणोंकी रक्षा की जाती है। जो पुरुष उत्पन्न हुए वह कभी अपमान करनेवालेकी बुराई न सोचे। अपने क्रोधको अपने मनसे रोक लेता है, वह उस क्षमाके द्वारा धर्मपर दृष्टि रखते हुए भी दूसरोंके धर्मकी निन्दा सबको जीत लेता है। जो क्रोध और भयको जीतकर न करे।* शान्त रहता है, पृथ्वीपर उसके समान वीर और जो इन्द्रियोंका दमन करना नहीं जानते, वे व्यर्थ ही कौन है। यह ब्रह्माजीका बताया हुआ गूढ़ उपदेश शास्त्रोंका अध्ययन करते हैं; क्योंकि मन और इन्द्रियोंका है। प्यारे ! हमने धर्मका हृदय-सार तत्त्व तुम्हें संयम ही शास्त्रका मूल है, वही सनातन धर्म है। सम्पूर्ण बतलाया है। व्रतोंका आधार दम ही है। छहों अङ्गोंसहित पड़े हुए वेद यज्ञ करनेवालोंके लोक दूसरे हैं, तपस्वियोंके लोक भी दमसे हीन पुरुषको पवित्र नहीं कर सकते । जिसने दूसरे हैं तथा इन्द्रिय-संयम और मनोनिग्रह करनेवाले इन्द्रियोंका दमन नहीं किया, उसके सांख्य, योग, उत्तम लोगोंके लोक दूसरे ही हैं। वे सभी परम सम्मानित हैं। कुल, जन्म और तीर्थस्नान-सभी व्यर्थ हैं। योगवेत्ता क्षमा करनेवालेपर एक ही दोष लागू होता है, दूसरा द्विजको चाहिये कि वह अपमानको अमृतके समान नहीं; वह यह कि क्षमाशील पुरुषको लोग शक्तिहीन समझकर उससे प्रसन्नताका अनुभव करे और सम्मानको मान बैठते हैं। किन्तु इसे दोष नहीं मानना चाहिये, विषके तुल्य मानकर उससे घृणा करे। अपमानसे उसके क्योंकि बुद्धिमानोंका बल क्षमा ही है। जो शान्ति अथवा तपकी वृद्धि होती है और सम्मानसे क्षय। पूजा और क्षमाको नहीं जानता, वह इष्ट (यज्ञ आदि) और पूर्त सत्कार पानेवाला ब्राह्मण दुही हुई गायकी तरह खाली हो (तालाब आदि खुदवाना) दोनोंके फलोंसे वञ्चित हो जाता है। जैसे गौ घास और जल पीकर फिर पुष्ट हो जाता है। क्रोधी मनुष्य जो जप, होम और पूजन करता जाती है, उसी प्रकार ब्राह्मण जप और होमके द्वारा पुनः है, वह सब फूटे हुए घड़ेसे जलकी भाँति नष्ट हो जाता ब्रह्मतेजसे सम्पन्न हो जाता है। संसारमे निन्दा है। जो पुरुष प्रातःकाल उठकर प्रतिदिन इस पुण्यमय करनेवालेके समान दूसरा कोई मित्र नहीं है, क्योंकि वह दमाध्यायका पाठ करता है, वह धर्मको नौकापर आरूढ़ पाप लेकर अपना पुण्य दे जाता है। निन्दा करने- होकर सारी कठिनाइयोंको पार कर जाता है। जो द्विज * अवमाने न कुप्येत सम्माने न प्रहष्यति । समदुःखसुखो धीरः प्रशान्त इति कीर्त्यते ॥ सुखं नवमतः शेते सुखं चैव प्रबुध्यति । श्रेयस्तरमतिस्तिष्ठेदवमन्ता विनश्यति ॥ अवमानी तु न ध्यायेत्तस्य पापं कदाचन । स्वधर्ममपि चावेक्ष्य परधर्म न दूषयेत् ॥ (१९ । ३३२-३४) * आक्रोशकसमो लोके सुहृदन्यो न विद्यते । यस्तु दुष्कृतमादाय सुकृतं वं प्रयच्छति ।।
SR No.034102
Book TitleSankshipta Padma Puran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUnknown
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages1001
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size73 MB
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