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________________ ६५८ अर्चयस्व हषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् . [ संक्षिप्त पद्मपुराण नाए चैत्र मासकी 'पापमोचनी' तथा 'कामदा' एकादशीका माहात्म्य युधिष्ठिरने पूछा-भगवन् ! फाल्गुन शुक्लपक्षकी मेधावी बोले-देवी ! जबतक सबेरेकी सन्ध्या आमलकी एकादशीका माहात्म्य मैंने सुना। अब चैत्र न हो जाय तबतक मेरे ही पास ठहरो। कृष्णपक्षकी एकादशीका क्या नाम है, यह बतानेको अप्सराने कहा-विप्रवर ! अबतक न जाने कृपा कीजिये। कितनी सन्ध्या चली गयी ! मुझपर कृपा करके बीते हुए भगवान् श्रीकृष्ण बोले-राजेन्द्र ! सुनो-मै समयका विचार तो कीजिये। इस विषयमें एक पापनाशक उपाख्यान सुनाऊँगा, जिसे लोमशजी कहते है-राजन् ! अप्सराको बात चक्रवर्ती नरेश मान्धाताके पूछनेपर महर्षि लोमशने सुनकर मेधावीके नेत्र आश्चर्यसे चकित हो उठे। उस कहा था। समय उन्होंने बीते हुए समयका हिसाब लगाया तो का मान्धाता बोले-भगवन् ! मैं लोगोंके हितको मालूम हुआ कि उसके साथ रहते सत्तावन वर्ष हो गये। इच्छासे यह सुनना चाहता हूँ कि चैत्रमासके कृष्णपक्षमें उसे अपनी तपस्याका विनाश करनेवाली जानकर मुनिको किस नामकी एकादशी होती है? उसकी क्या विधि है उसपर बड़ा क्रोध हुआ। उन्होंने शाप देते हुए कहातथा उससे किस फलकी प्राप्ति होती है ? कृपया ये सब 'पापिनी ! तू पिशाची हो जा।' मुनिके शापसे दग्ध होकर बातें बताइये। वह विनयसे नतमस्तक हो बोली- 'विप्रवर ! मेरे लोमशजीने कहा-नृपश्रेष्ठ ! पूर्वकालकी बात शापका उद्धार कीजिये। सात वाक्य बोलने या सात पद है, अप्सराओंसे सेवित चैत्ररथ नामक वनमें, जहाँ साथ-साथ चलने मात्रसे ही सत्पुरुषोंके साथ मैत्री हो गन्धर्वोकी कन्याएँ अपने किङ्करोंके साथ बाजे बजाती हुई जाती है। ब्रह्मन्! मैंने तो आपके साथ अनेक वर्ष विहार करती हैं, मञ्जुघोषा नामक अप्सरा मुनिवर व्यतीत किये हैं; अतः स्वामिन् ! मुझपर कृपा कीजिये।' मेधावीको मोहित करनेके लिये गयी। वे महर्षि उसी मुनि बोले-भद्रे ! मेरी बात सुनो-यह शापसे वनमें रहकर ब्रह्मचर्यका पालन करते थे। मञ्जुघोषा उद्धार करनेवाली है। क्या करूं? तुमने मेरी बहुत बड़ी मुनिके भयसे आश्रमसे एक कोस दूर ही ठहर गयी और तपस्या नष्ट कर डाली है। चैत्र कृष्णपक्षमें जो शुभ सुन्दर ढंगसे वीणा बजाती हुई मधुर गीत गाने लगी। एकादशी आती है उसका नाम है 'पापमोचनी' । वह सब मुनिश्रेष्ठ मेधावी घूमते हुए उधर जा निकले और उस पापोंका क्षय करनेवाली है। सुन्दरी ! उसीका व्रत सुन्दरी अप्सराको इस प्रकार गान करते देख सेनासहित करनेपर तुम्हारी पिशाचता दूर होगी। कामदेवसे परास्त होकर बरबस मोहके वशीभूत हो ऐसा कहकर मेधावी अपने पिता मुनिवर च्यवनके गये। मुनिकी ऐसी अवस्था देख मञ्जुघोषा उनके समीप आश्रमपर गये। उन्हें आया देख च्यवनने पूछाआयी और वीणा नीचे रखकर उनका आलिङ्गन करने 'बेटा ! यह क्या किया? तुमने तो अपने पुण्यका नाश लगी। मेधावी भी उसके साथ रमण करने लगे। कर डाला !' कामवश रमण करते हुए उन्हें रात और दिनका भी भान मेधावी बोले-पिताजी ! मैंने अप्सराके साथ न रहा । इस प्रकार मुनिजनोचित सदाचारका लोप करके रमण करनेका पातक किया है। कोई ऐसा प्रायश्चित्त अप्सराके साथ रमण करते उन्हें बहुत दिन व्यतीत हो बताइये, जिससे पापका नाश हो जाय । गये। मञ्जुघोषा देवलोकमें जानेको तैयार हुई। जाते च्यवनने कहा-बेटा ! चैत्र कृष्णपक्षमें जो समय उसने मुनिश्रेष्ठ मेधावीसे कहा-'ब्रह्मन् ! अब पापमोचनी एकादशी होती है, उसका व्रत करनेपर मुझे अपने देश जानेकी आज्ञा दीजिये।' पापराशिका विनाश हो जायगा।
SR No.034102
Book TitleSankshipta Padma Puran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUnknown
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages1001
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size73 MB
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