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________________ भूमिखण्ड ] . श्रीविष्णुद्वारा नैमित्तिक और आध्युदयिक आदि दानोका वर्णन, सती सुकलाकी कथा . २५७ दीक्षा लेनेवाला पुरुष भी उत्तम पात्र है। नरश्रेष्ठ ! ये दान हो, वह श्राद्ध और दानमें सम्मिलित करनेयोग्य कदापि देनेयोग्य श्रेष्ठ पात्र बताये गये हैं। जो वेदोक्त आचारसे नहीं है। श्रद्धापूर्वक उत्तम कालमें, उत्तम तीर्थ में और युक्त हो, वह भी दान-पात्र है। धूर्त और काने ब्राह्मणको उत्तम पात्रको दान देनेसे उत्तम फल मिलता है। राजन् ! दान न दे। जिसकी स्त्री अन्याययुक्त दुष्कर्ममें प्रवृत्त हो, संसारमें प्राणियोंके लिये श्रद्धाके समान पुण्य, श्रद्धाके जो स्त्रीके वशीभूत रहता हो, उसे दान देना निषिद्ध है। समान सुख और श्रद्धाके समान तीर्थ नहीं है।* चोरको भी दान नहीं देना चाहिये। उसे दान देनेवाला नृपश्रेष्ठ ! श्रद्धा-भावसे युक्त होकर मनुष्य पहले मेरा मनुष्य तत्काल चोरके समान हो जाता है। अत्यन्त जड स्मरण करे, उसके बाद सुपात्रके हाथमें द्रव्यका दान दे। और विशेषतः शठ ब्राह्मणको भी दान देना उचित नहीं इस प्रकार विधिवत् दान करनेका जो अनन्त फल है, है। वेद-शास्त्रका ज्ञाता होनेपर भी जो सदाचारसे रहित उसे मनुष्य पा जाता है और मेरी कृपासे सुखी होता है। श्रीविष्णुद्वारा नैमित्तिक और आभ्युदयिक आदि दानोंका वर्णन और पत्नीतीर्थके प्रसङ्गमें सती सुकलाकी कथा भगवान् श्रीविष्णु कहते हैं-नृपश्रेष्ठ ! अब मैं धाममें निवास करता है। पुनः नैमित्तिक दानका वर्णन करता हूँ। जो सत्पात्रको अब आभ्युदयिक दानका वर्णन करता हूँ। हाथी, घोड़ा और रथ दान करता है, वह भृत्योंसहित नृपश्रेष्ठ ! यज्ञ आदिमें जो दान दिया जाता है, वह यदि पुण्यमय प्रदेशका राजा होता है। राजा होनेके साथ ही शुद्धभावसे दिया गया हो तो उससे मनुष्यकी बुद्धि वह धर्मात्मा, विवेकी, बलवान्, उत्तम बुद्धिसे युक्त, बढ़ती है तथा दाताको कभी दुःख नहीं उठाना पड़ता। सम्पूर्ण प्राणियोंके लिये अजेय और महान् तेजस्वी होता वह जीवनभर सुख भोगता है और मृत्युके पश्चात् दिव्य है। महाराज ! जो महान् पर्व आनेपर भूमिदान अथवा गतिको प्राप्त होकर इन्द्रलोकके भोगोंका अनुभव करता गोदान करता है, वह सब भोगोंका अधीश्वर होता है। जो है। इतना ही नहीं, वह हजार कल्पोंतकके लिये अपने पर्व आनेपर तीर्थमे गुप्त दान देता है, उसे शीघ्र ही अक्षय कुलको स्वर्गमें ले जाता है। अब दूसरे प्रकारका दान निधियोंकी प्राप्ति होती है। जो तीर्थोमें महापर्वके प्राप्त बताता हूँ। शरीरको बुढ़ापेसे पीड़ित और क्षीण जानकर होनेपर ब्राह्मणको सुन्दर वस्त्र और सुवर्णका महादान मनुष्यको [अपने कल्याणके लिये] दान अवश्य करना देता है, उसके बहुत-से सद्गुणी और वेदोंके पारगामी पुत्र चाहिये, उसे किसीकी भी आशा नहीं रखनी चाहिये। उत्पन्न होते हैं। वे सभी आयुष्मान, पुत्रवान्, यशस्वी, 'मेरे मर जानेपर ये मेरे पुत्र तथा अन्यान्य पुण्यात्मा, यज्ञ करनेवाले तथा तत्त्वज्ञानी होते हैं। स्वजन-सम्बन्धी, बन्धु-बान्धव कैसे रहेंगे; मेरे बिना मेरे महामते! दान करनेवालेको सुख, पुण्य एवं घनकी मित्रोंकी क्या दशा होगी?' इत्यादि बातें सोचकर उनके प्राप्ति होती है। महाराज ! कपिला गौका दान करनेवाले मोहसे मुग्ध हुआ मनुष्य कुछ भी दान नहीं कर पाता। पुरुष महान् सुख भोगते हैं; ब्रह्माकी आयुपर्यन्त वे भी ऐसा जीव यमलोकके मार्गमें पहुंचकर बहुत दुःखी हो ब्रह्मलोकमें निवास करते हैं। सुशील ब्राह्मणको जाता है। वह भूख-प्याससे व्याकुल तथा नाना प्रकारके वस्त्रसहित सुवर्णका दान देकर मनुष्य अनिके समान दुःखोंसे पीड़ित रहता है । संसारमें कोई भी किसीका नहीं तेजस्वी होता है और अपनी इच्छाके अनुसार वैकुण्ठ- है; अतः जीते-जी स्वयं ही अपने लिये दान करना * नास्ति श्रद्धासम पुण्यं नास्ति श्रद्धासमं सुखम् । नास्ति श्रद्धासमं तीर्थ संसारे प्राणिनां नृप । (३९।७८)
SR No.034102
Book TitleSankshipta Padma Puran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUnknown
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages1001
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size73 MB
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