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________________ २५८ . अर्चयस्व इषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् . [संक्षिप्त पञ्चपुराण चाहिये । अन्न, जल, सोना, बछड़ेसहित उत्तम गौ, भूमि सुकलाने कहा-प्राणनाथ ! मैं आपकी तथा नाना प्रकारके फल दान करने चाहिये। यदि धर्मपत्नी हैं, अतः आपके साथ रहकर पुण्य करनेका मेरा अधिक शुभ फलकी इच्छा हो तो पैरोंको आराम अधिकार है। मैं आपके मार्गपर चलती हूँ। इस देनेवाले जूते भी दान देने चाहिये। सद्भावके कारण मैं कभी आपको अपनेसे अलग नहीं - वेनने पूछा-भगवन् ! पुत्र, पत्नी, माता, पिता कर सकती। आपकी छायाका आश्रय लेकर मैं और गुरु-ये सब तीर्थ कैसे हैं-इस विषयका पातिव्रत्यके उत्तम व्रतका पालन करूंगी, जो नारियोंके विस्तारके साथ वर्णन कीजिये। पापका नाशक और उन्हें सद्गति प्रदान करनेवाला है। जो . भगवान् श्रीविष्णु बोले-[राजन् ! पहले इस स्त्री पतिपरायणा होती है, वह संसारमें पुण्यमयी बातको सुनो कि पली कैसे तीर्थ है।] काशी नामकी एक कहलाती है। युवतियोंके लिये पतिके सिवा दूसरा कोई बहुत बड़ी पुरी है, जो गङ्गासे सटकर बसी होनेके कारण ऐसा तीर्थ नहीं है, जो इस लोकमें सुखद और परलोकमें बहुत सुन्दर दिखायी देती है। उसमें एक वैश्य रहते थे, स्वर्ग तथा मोक्ष प्रदान करनेवाला हो। साधुश्रेष्ठ ! जिनका नाम था कृकल । उनकी पत्नी परम साध्वी तथा स्वामीके दाहिने चरणको प्रयाग समझिये और बायेंको उत्तम व्रतका पालन करनेवाली थी। वह सदा धर्माचरणमें पुष्कर। जो स्त्री ऐसा मानती है तथा इसी भावनाके रत और पतिव्रता थी। उसका नाम था सुकला। अनुसार पतिके चरणोदकसे स्नान करती है, उसे उन सुकलाके अङ्ग पवित्र थे। वह सुयोग्य पुत्रोंकी जननी, तीर्थोंमें स्नान करनेका पुण्य प्राप्त होता है। इसमें तनिक सुन्दरी, मङ्गलमयी, सत्यवादिनी, शुभा और शुद्ध भी सन्देह नहीं कि स्त्रियोंके लिये पतिके चरणोदकका स्वभाववाली थी। उसकी आकृति देखनेमें बड़ी मनोहर अभिषेक प्रयाग और पुष्करतीर्थमें स्नान करनेके समान थी। व्रतोंका पालन करना उसे अत्यन्त प्रिय था। इस है। पति समस्त तीर्थोके समान है। पति सम्पूर्ण धर्मोका प्रकार वह मनोहर मुसकानवाली सुन्दरी अनेक गुणोंसे स्वरूप है। यज्ञकी दीक्षा लेनेवाले पुरुषको यज्ञोंके युक्त थी। वे वैश्य भी उत्तम वक्ता, धर्मज्ञ, अनुष्ठानसे जो पुण्य प्राप्त होता है, वही पुण्य साध्वी स्त्री विवेक-सम्पन्न और गुणी थे। वैदिक तथा पौराणिक अपने पतिकी पूजा करके तत्काल प्राप्त कर लेती है।* धर्मोके श्रवणमें उनकी बड़ी लगन थी। उन्होंने अतः प्रियतम ! मैं भी आपकी सेवा करती हुई तीर्थोमें तीर्थयात्राके प्रसङ्गमें यह बात सुनी थी कि 'तीर्थोंका चलूंगी और आपकी ही छायाका अनुसरण करती हुई सेवन यहुत पुण्यदायक है, वहाँ जानेसे पुण्यके साथ ही लौट आऊँगी। मनुष्यका कल्याण भी होता है।' इस बातपर उनके मनमें कृकलने अपनी पत्नीके रूप, शील, गुण भक्ति श्रद्धा तो थी ही, ब्राह्मणों और व्यापारियोंका साथ भी और सुकुमारता देखकर बारंबार उसपर विचार कियामिल गया। इससे वे धर्मके मार्गपर चल दिये। उन्हें 'यदि मैं अपनी पलीको साथ ले लूं तो मैं तो अत्यन्त जाते देख उनकी पतिव्रता पत्नी पतिके स्नेहसे मुग्ध दुःखदायो दुर्गम मार्गपर भी चल सकूँगा, किन्तु वहाँ होकर बोली। सर्दी और धूपके कारण इस बेचारीका तो हुलिया ही * सव्यं पाद स्वभर्तुच प्रयाग विद्धि सत्तम । वामं च पुष्कर तस्य या नारी परिकल्पयेत्॥ तस्य पादोदकनानात्तत्पुण्य परिजायते । प्रयागपुष्करसमै साने स्त्रीणां न संशयः ॥ सर्वतीर्थसमो भर्ता सर्वधर्ममयः पतिः । मखानां यजनात् पुण्यं यद् वै भवति दीक्षिते। तत् पुण्यं समवाप्रोति भर्तुचैव हि साम्प्रतम् ।। (४१।१३-१५)
SR No.034102
Book TitleSankshipta Padma Puran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUnknown
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages1001
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size73 MB
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