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________________ भूमिखण्ड] • कुखालका च्यवनको अपने पूर्व-जीवनका वृत्तान्त बताकर जानका उपदेश करना . ३२९ प्रकट होता है। यह शान्तिमूलक ज्ञान निर्मल तथा वाग्विनोदमें पड़कर मेरा सारा उत्तम ज्ञान चला गया। पापनाशक है। इसलिये तुम शान्ति धारण करो; वह सब एक दिन मैं फूल और फलं लानेके लिये वनमें प्रकारके सुखोंको बढ़ानेवाली है। शत्रु और मित्रमें समान गया था। इसी बीचमें एक बिलाव आकर तोतेको उठा भाव रखो। तुम अपने प्रति जैसा भाव रखते हो, वैसा ले गया। यह दुर्घटना मुझे केवल दुःख देनेका कारण ही दूसरोके प्रति भी बनाये रहो । सदा नियमपूर्वक रहकर हुई। बिलाव उस पक्षीको मारकर खा गया। इस प्रकार आहारपर विजय प्राप्त करो, इन्द्रियोंको जीतो। किसीसे उस तोतेकी मृत्यु सुनकर मुझे बड़ा दुःख हुआ। असह्य मित्रता न जोड़ो; वैरका भी दूरसे ही त्याग करो। निसंग शोकके कारण अत्यन्त पीडा होने लगी। मैं महान् और निःस्पृह होकर एकान्त स्थानमें रहो। इससे तुम मोह-जालमें बैंधकर उसके लिये प्रलाप करने लगा। सबको प्रकाश देनेवाले ज्ञानी, सर्वदर्शी बन जाओगे। सिद्ध महात्माने जिस ज्ञानका उपदेश दिया था, उसकी बेटा ! उस स्थितिमें पहुँचनेपर तुम मेरी कृपासे एक ही याद जाती रही। तब तो मीठे वचन बोलनेवाले उस स्थानपर बैठे-बैठे तीनों लोकोंमें होनेवाली बातोंको जान तोतेको तथा उसके ज्ञानको याद करके मैं 'हा वत्स ! हा लोगे-इसमें तनिक भी सन्देह नहीं है। वत्स !' कहकर प्रतिदिन विलाप करने लगा। कुशल कहता है-विप्रवर ! उन सिद्ध महात्माने इस प्रकार विलाप करता हुआ मैं शोकसे अत्यन्त ही मेरे सामने ज्ञानका रूप प्रकाशित किया था। उनको पीडित हो गया। अन्ततोगत्वा उसो दुःखसे मेरी मृत्यु हो आशामें स्थित होकर मैं पूर्वोक्त भावनाका ही चित्तन करने गयी। उसीकी भावनासे मोहित होकर मुझे प्राण त्यागना लगा। इससे सद्गुरुकी कृपा हुई, जिससे एक ही स्थानमें पड़ा। द्विजश्रेष्ठ ! मृत्युके समय मेरा जैसा भाव था, जैसी रहकर मै त्रिभुवनमें जो कुछ हो रहा है, सबको जानता हूँ। बुद्धि थी, उसी भाव और बुद्धिके अनुसार मेरा तोतेकी च्यवनने पूछा-खगश्रेष्ठ ! आप तो ज्ञानवानोंमें योनिमें जन्म हुआ है । परन्तु मुझे जो गर्भवास प्राप्त हुआ, श्रेष्ठ है, फिर आपको यह तोतेकी योनि कैसे प्राप्त हुई? वह मेरे ज्ञान और स्मरण-शक्तिको जाग्रत् करनेवाला कुजलने कहा-ब्रह्मन् ! संसर्गसे पाप और था। गर्भमें स्वयं ही मुझे अपने पूर्वकर्मका स्मरण हो संसर्गसे पुण्य भी होता है। अतः शुद्ध आचार- आया। मैंने सोचा-'ओह ! मुझ मूर्ख, अजितेन्द्रिय विचारवाले कल्याणमय पुरुषको कुसङ्गका त्याग कर तथा पापीने यह क्या कर डाला।' फिर गुरुदेवके देना चाहिये। एक दिन कोई पापी व्याध एक तोतेके अनुग्रहसे मुझे उत्तम ज्ञान प्राप्त हुआ। उनके वाक्यरूपी बच्चेको बाँधकर उसे वैचनेके लिये आया। वह बधा स्वच्छ जलसे मेरे शरीरके भीतर और बाहरका सारा मल देखने में बड़ा सुन्दर और मीठी बोली बोलनेवाला था। धुल गया। मेरा अन्तःकरण निर्मल हो गया। पूर्वजन्ममें एक ब्राह्मणने उसे खरीद लिया और मेरी प्रसन्नताके लिये मृत्युकाल उपस्थित होनेपर मैंने तोतेका ही चिन्तन किया उसको मुझे दे दिया। मैं प्रतिदिन ज्ञान और ध्यानमें स्थित और उसीकी भावनासे भावित होकर मैं मृत्युको प्राप्त रहता था। उस समय वह तोतेका बच्चा बाल-स्वभावके हुआ । यही कारण है कि मुझे पृथ्वीपर तोतेके रूपमें पुनः कारण कौतूहलवश मेरे हाथपर आ बैठता और बोलने जन्म लेना पड़ा। मृत्युके समय प्राणियोंका जैसा भाव लगता–'तात ! मेरे पास आओ, बैठो; नानके लिये रहता है, वे वैसे ही जीवके रूपमें उत्पन्न होते हैं। उनका जाओ और अब देवताओंका पूजन करो।' इस तरहको शरीर, पराक्रम, गुण और स्वरूप-सब उसी तरहके मीठी-मीठी बातें वह मुझसे कहा करता था। उसके होते हैं। वे भाव-स्वरूप होकर ही जन्म लेते हैं।* * मरणे यादृशो भावः प्राणिना परिजायते ॥ तादृशाः स्युस्तु सत्त्वास्ते तद्रूपास्तत्पराक्रमाः । तद्गुणास्तत्स्वरूपाच भावभूता भवन्ति हि॥ (१२३ ॥ ४६-४७)
SR No.034102
Book TitleSankshipta Padma Puran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUnknown
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages1001
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size73 MB
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