SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 330
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ .. . अर्चयस्व हवीकेश यदीच्छसि परं पदम् . [ संक्षिप्त पयपुराण महामते ! इस तोतेके शरीरमें मुझे अतुलित ज्ञान प्राप्त शरीरमें आ मिलोगे। हुआ है, जिसके प्रभावसे मैं भूत, भविष्य और वेनसे यों कहकर श्रीहरि अन्तर्धान हो गये। उनके वर्तमान-तीनों कालोको प्रत्यक्ष देखता हूँ। यहाँ रहकर अदृश्य हो जानेपर नृपश्रेष्ठ वेन बड़े हर्षके साथ घर आये भी उसी ज्ञानके प्रभावसे मुझे सब कुछ ज्ञात हो जाता और कुछ सोच-विचारकर अपने पुत्र पृथुको निकट बुला है। विप्रवर ! संसारमें भटकनेवाले मनुष्योंको तारनेके मधुर वाणीमें बोले-'बेटा ! तुम वास्तवमें पुत्र हो। लिये गुरुके समान वन्धन-नाशक तीर्थ दूसरा कोई नहीं तुमने इस भूलोकमें बहुत बड़े पातकसे मेरा उद्धार कर है।* भूतलपर प्रकट हुए जलसे बाहरका ही सारा मल दिया। मेरे वंशको उज्ज्वल बना दिया। मैंने अपने नष्ट होता है; किन्तु गुरुरूपी तीर्थ जन्म-जन्मान्तरके दोषोंसे इस कुलका नाश कर दिया था, किन्तु तुमने फिर पापोंका भी नाश कर डालता है। संसारमें जीवोंका उद्धार इसे चमका दिया है। अब मैं अश्वमेध यज्ञके द्वारा करनेके लिये गुरु चलता-फिरता उत्तम तीर्थ है। भगवान्का यजन करूँगा और नाना प्रकारके दान दूंगा। भगवान् श्रीविष्णु कहते हैं-नृपश्रेष्ठ ! वह फिर भगवान् विष्णुकी कृपासे उनके उत्तम धामको परम ज्ञानी शुक महात्मा च्यवनको इस प्रकार तत्त्वज्ञानका जाऊँगा। अतः महाभाग ! अब तुम यज्ञको उत्तम उपदेश देकर चुप हो गया। यह सब परम उत्तम जङ्गम सामग्रियोंको जुटाओ और वेदोंके पारगामी विद्वान् तीर्थकी महिमाका वर्णन किया गया। राजन् ! तुम्हारा ब्राह्मणोंको निमन्त्रित करो।' कल्याण हो! तुम्हारे मनमें जो इच्छा हो, उसे वरके सूतजी कहते हैं-वेनकी आज्ञा पाकर परम रूपमें माँग लो। धर्मात्मा राजकुमार पृथुने नाना प्रकारको पवित्र सामग्रियाँ वेनने कहा-जनार्दन ! मुझे राज्य पानेकी एकत्रित की तथा नाना देशोंमें उत्पन्न हुए समस्त अभिलाषा नहीं है। मैं दूसरी कोई वस्तु भी नहीं चाहता। ब्राह्मणोंको नियन्त्रित किया। तदनन्तर राजा वेनने केवल आपके शरीरमें प्रवेश करना चाहता हूँ। अश्वमेध यज्ञ किया और ब्राह्मणोंको अनेक प्रकारके दान भगवान् श्रीविष्णुबोले-राजन् ! तुम अश्वमेध दिये। इसके बाद वे भगवान् विष्णुके धामको चले गये। और राजसूय यज्ञोंके द्वारा मेरा यजन करो। गौ, भूमि, महर्षियो ! इस प्रकार मैंने आपलोगोंसे राजा पृथुके सुवर्ण, अन्न और जलका दान दो। महामते ! दानसे समस्त चरित्रका वर्णन किया। यह सब पापोंकी शान्ति ब्रह्महत्या आदि घोर पाप भी नष्ट हो जाते है। दानसे और सम्पूर्ण दुःखोंका विनाश करनेवाला है। धर्मात्मा चारों पुरुषार्थोकी भी सिद्धि होती है, इसलिये मेरे राजा पृथुने इस प्रकार पृथ्वीका राज्य किया और तीनों उद्देश्यसे दान अवश्य करना चाहिये। जो जिस भावसे लोकोसहित भूमण्डलकी रक्षा की। उन्होंने पुण्य-धर्ममय मेरे लिये दान देता है, उसके उस भावको मैं सत्य कर कोंक द्वारा समस्त प्रजाका मनोरञ्जन किया। देता हूँ। ऋषियोंके दर्शन और स्पर्शसे तुम्हारी पापराशि यह मैंने आपलोगोंसे परम उत्तम भूमिखण्डका नष्ट हो चुकी है। यज्ञोंके अन्तमें तुम निश्चय ही मेरे वर्णन किया है। पहला सृष्टिखण्ड है और दूसरा * तारणाय मनुष्याणां संसारे परिवर्तताम् । नास्ति तीर्थ गुरुसमै बन्धच्छेदकर द्विज ॥ (१२३ । ५०) + स्थलजाचोदकात् सर्वं बाह्य मलं प्रणश्यति । जन्मान्तरक्ता-पापान् गुरुतीर्थ प्रणाशयेत्॥ संसारे तारणायैव जङ्गमं तीर्थमुत्तमम्। (१२३ । ५२-५३) * यादृशेनापि भावेन मामुद्दिश्य ददाति यः॥ तादर्श तस्य वै भावं सत्यमेव कोम्यहम्। (१२३ । ५८-५९)
SR No.034102
Book TitleSankshipta Padma Puran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUnknown
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages1001
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size73 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy