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________________ ६८८ • अर्चयस्व हषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् . [ संक्षिप्त पापुराण इच्छानुसार भ्रमण करनेवाले द्विजश्रेष्ठ मुद्गल मुनि ध्यान और पूजन करना चाहिये। यह मल-दोषका विनाश चले गये। करनेवाला है। इसके स्पर्शमात्रसे मनुष्य पवित्र हो जाता द्विजवर ! जहाँ गोपीचन्दन रहता है, वह घर तीर्थ- है। वह अन्तकालमें मनुष्योंके लिये मुक्तिदाता एवं परम स्वरूप है-यह भगवान् श्रीविष्णुका कथन है। जिस पावन है। द्विजश्रेष्ठ ! मैं क्या बताऊँ, गोपीचन्दन मोक्ष ब्राह्मणके घरमें गोपीचन्दन मौजूद रहता है, वहाँ कभी प्रदान करनेवाला है। भगवान् विष्णुका प्रिय तुलसीकाष्ठ, शोक, मोह तथा अमङ्गल नहीं होते। जिसके घरमें रात- उसके मूलकी मिट्टी, गोपीचन्दन तथा हरिचन्दन- इन दिन गोपीचन्दन प्रस्तुत रहता है, उसके पूर्वज सुखी होते चारोको एकमें मिलाकर विद्वान् पुरुष अपने शरीरमें हैं तथा सदा उसकी संतति बढ़ती है। गोपीतालाबसे लगाये। जो ऐसा करता है, उसके द्वारा जम्बूद्वीपके समस्त उत्पन्न होनेवाली मिट्टी परम पवित्र एवं शरीरका शोधन तीर्थोका सदाके लिये सेवन हो जाता है । जो गोपीचन्दनको करनेवाली है। देहमें उसका लेप करनेसे सारे रोग नष्ट घिसकर उसका तिलक लगाता है, वह सब पापोंसे मुक्त हो होते हैं तथा मानसिक चिन्ताएँ भी दूर हो जाती है। अतः श्रीविष्णुके परम पदको प्राप्त होता है। जिस पुरुषने पुरुषोंद्वारा शरीरमें धारण किया हुआ गोपीचन्दन सम्पूर्ण गोपीचन्दन धारण कर लिया, उसने मानो गयामें जाकर कामनाओंकी पूर्ति तथा मोक्ष प्रदान करनेवाला है। इसका अपने पिताका श्राद्ध-तर्पण आदि सब कुछ कर लिया। वैष्णवोंके लक्षण और महिमा तथा श्रवणद्वादशी-व्रतकी विधि और माहात्म्य-कथा महादेवजी कहते हैं-नारद ! सुनो, अब मैं ही भगवद्भक्त पुरुष उत्पत्र हो जाता है, उसका कुल वैष्णवोंके लक्षण बताऊँगा, जिन्हें सुनकर लोग ब्रह्माहत्या बारम्बार उस पुरुषके द्वारा उद्धारको प्राप्त होता रहता है। आदि पातकोंसे मुक्त हो जाते हैं। भक्त भगवान् विष्णुका वैष्णवोंके दर्शनमात्रसे ब्रह्महत्यारा भी शुद्ध हो जाता है। होकर रहा है, इसलिये वह वैष्णव कहलाता है। समस्त महामुने ! इस लोकमें जो वैष्णव पुरुष देखे जाते हैं, वोंकी अपेक्षा वैष्णवको श्रेष्ठ कहा गया है। जिनका तत्त्ववेत्ता पुरुषोंको उन्हें विष्णुके समान हो जानना आहार अत्यन्त पवित्र है, उन्हींके वंशमें वैष्णव पुरुष चाहिये। जिसने भगवान् विष्णुकी पूजा की, उसके द्वारा जन्म धारण करता है। ब्रह्मन् ! जिनके भीतर क्षमा, सबका पूजन हो गया। जिसने वैष्णवोंकी पूजा की, दया, तपस्या और सत्यको स्थिति है, उन वैष्णवोंके उसने महादान कर लिया। जो वैष्णवोंको सदा फल, दर्शनमात्रके आगसे रूईकी भाँति सारा पाप नष्ट हो जाता पत्र, साग, अन्न अथवा वस्त्र दिया करते हैं, वे इस है। जो हिंसासे दूर रहता है, जिसकी मति सदा भगवान् भूमण्डलमें धन्य हैं। ब्रह्मन् ! वैष्णवोंके विषयमें अव विष्णुमें लगी रहती है, जो अपने कण्ठमें तुलसीकाष्ठकी और क्या कहा जाय। बारम्बार अधिक कहनेकी माला धारण करता है, प्रतिदिन अपने अङ्गोंमें बारह आवश्यकता नहीं है; उनका दर्शन और स्पर्श-सब तिलक लगाये रहता है तथा विद्वान् होकर धर्म और कुछ सुखद है। जैसे भगवान् विष्णु हैं, वैसा ही उनका अधर्मका ज्ञान रखता है, वह मनुष्य वैष्णव कहलाता भक्त वैष्णव पुरुष भी है। इन दोनोंमें कभी अन्तर नहीं है। जो सदा वेद-शास्त्रके अभ्यासमें लगे रहते, प्रतिदिन रहता। ऐसा जानकर विद्वान् पुरुष सदा वैष्णवोंकी पूजा यज्ञोंका अनुष्ठान करते तथा बारम्बार वर्षके चौबीस करे। जो इस पृथ्वीपर एक ही वैष्णव ब्राह्मणको भोजन उत्सव मनाते रहते हैं, उनका कुल परम धन्य है; उन्हींका करा देता है, उसने सहस्रों ब्राह्मणोंको भोजन करा यश विस्तारको प्राप्त होता है तथा वे ही लोग संसारमे दिया-इसमें तनिक भी संदेह नहीं है। धन्यतम एवं भगवद्धक्त हैं। ब्रह्मन् ! जिसके कुलमें एक नारदजीने कहा-सुरश्रेष्ठ ! जो सदा उपवास
SR No.034102
Book TitleSankshipta Padma Puran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUnknown
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages1001
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size73 MB
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