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________________ १२० • अर्चवस्व हषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् । [ संक्षिप्त पापुराण अरजा बोली-राजेन्द्र ! आपको मालूम होना गया। ] फिर तो शुक्रको बड़ा रोष हुआ, वे तीनों चाहिये कि मैं भार्गव-वंशकी कन्या हूँ। पुण्यात्मा लोकोंको दग्ध-सा करते हुए अपने शिष्योंको सुनाकर शुक्राचार्यकी मैं ज्येष्ठ पुत्री हूँ, मेरा नाम अरजा है। बोले-'धर्मके विपरीत आचरण करनेवाले अदूरदर्शी पिताजी इस आश्रमपर ही निवास करते हैं। महाराज! दण्डके ऊपर प्रज्वलित अग्निशिखाके समान भयङ्कर शुक्राचार्य मेरे पिता है और आप उनके शिष्य है। अतः विपत्ति आ रही है; तुम सब लोग देखना-वह खोटी धर्मके नाते मैं आपकी बहिन हूँ। इसलिये आपको बुद्धिवाला पापी राजा अपने देश, भृत्य, सेना और मुझसे ऐसी बात नहीं कहनी चाहिये। यदि दूसरे कोई वाहनसहित नष्ट हो जायगा। उसका राज्य सौ योजन दुष्ट पुरुष भी मुझपर कुदृष्टि करें तो आपको सदा उनके लम्बा-चौड़ा है, उस समूचे राज्यमें इन्द्र धूलकी बड़ी हाथसे मेरी रक्षा करनी चाहिये। मेरे पिता बड़े क्रोधी भारी वर्षा करेंगे। उस राज्यमें रहनेवाले स्थावर-जङ्गम और भयङ्कर है। वे [अपने शापसे] आपको भस्म कर जितने भी प्राणी हैं, उन सबका उस धूलकी वर्षासे शीघ्र सकते हैं। अतः नृपश्रेष्ठ ! आप मेरे महातेजस्वी पिताके ही नाश हो जायगा। जहाँतक दण्डका राज्य है, पास जाइये और धर्मानुकूल बर्तावके द्वारा उनसे मेरे वहाँतकके उपवनों और आश्रमोंमें अकस्मात् सात लिये याचना कीजिये। अन्यथा [इसके विपरीत राततक धूलकी वर्षा होती रहेगी।' आचरण करनेपर] आपपर महान् एवं घोर दुःख आ : क्रोधसे संतप्त होनेके कारण इस प्रकार शाप दे पड़ेगा। मेरे पिताका क्रोध उभड़ जानेपर वे समूची महर्षि शुक्रने आश्रमवासी शिष्योंसे कहा-'तुमलोग त्रिलोकीको भी जलाकर खाक कर सकते हैं। यहाँ रहनेवाले सब लोगोंको इस राज्यकी सीमासे बाहर .: दण्ड बोला-सुन्दरी ! तुम्हें पा लेनेपर चाहे मेरा ले जाओ।' उनकी आज्ञा पाते ही आश्रमवासी मनुष्य वध हो जाय अथवा वधसे भी महान् कष्ट भोगना पड़े शीघ्रतापूर्वक उस राज्यसे हट गये और सीमासे बाहर [मुझे स्वीकार है)। भीरु ! मैं तुम्हारा भक्त हैं, मुझे जाकर उन्होंने अपने डेरे डाल दिये। तदनन्तर शुक्राचार्य स्वीकार करो। __ अरजासे बोले-'ओ नीच बुद्धिवाली कन्या ! तू अपने . ऐसा कहकर राजाने उस कन्याको बलपूर्वक चित्तको एकाग्र करके सदा इस आश्रमपर ही निवास बाहुपाशमें कस लिया और उस एकान्त वनमें, जहाँसे कर। यह चार कोसके विस्तारका सुन्दर शोभासम्पन्न कहीं आवाज भी नहीं पहुँच सकती थी, उसे नंगा कर सरोवर है। अरजे ! तू रजोगुणसे रहित सात्त्विक जीवन दिया। बेचारी अबला उसकी भुजाओंसे छूटनेके लिये व्यतीत करती हुई सौ वर्षोंतक यहीं रह ।' महर्षिका यह बहुत छटपटायी, परन्तु फिर भी उसने खेच्छानुसार आदेश सुन अरजाने 'तथास्तु' कहकर उनकी आज्ञा उसके साथ भोग किया। राजा दण्ड वह अत्यन्त स्वीकार की। उस समय वह बहुत ही दुःखी हो रही थी। कठोरतापूर्ण और महाभयानक अपराध करके तुरंत शुक्राचार्यने कन्यासे उपर्युक्त बात कहकर वहाँसे दूसरे अपने नगरको चल दिया तथा भार्गव-कन्या अरजा आश्रमके लिये प्रस्थान किया। ब्रह्मवादी महर्षिक दीनभावसे रोती हुई अत्यन्त उद्विग्र हो आश्रमके समीप कथनानुसार विन्ध्यगिरिके शिखरोंपर फैला हुआ राजा अपने देव-तुल्य पिताके पास आयी। उसके पिता दण्डका समूचा राज्य एक सप्ताहके भीतर ही जलकर अमित तेजस्वी देवर्षि शुक्राचार्य सरोवरपर स्नान करने खाक हो गया। तबसे वह विशाल वन ‘दण्डकारण्य' गये थे। स्नान करके वे दो ही पड़ीमें शिष्योंसहित कहलाता है। रघुनन्दन ! आपने जो मुझसे पूछा था, वह आश्रमपर लौट आये। [आश्रमपर आकर] उन्होंने सारा प्रसङ्ग मैने कह सुनाया, अब सन्ध्योपासनका समय देखा-अरजाकी दशा बड़ी दयनीय है, वह धूलमें सनी बीता जा रहा है। ये महर्षिगण सब ओर जलसे भरे घड़े हुई है। [ तुरंत ही सारा रहस्य उनके ध्यानमें आ लेकर अर्घ्य दे भगवान् सूर्यको पूजा कर रहे हैं। आप
SR No.034102
Book TitleSankshipta Padma Puran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUnknown
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages1001
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size73 MB
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