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________________ सृष्टिखण्ड ] दण्डकारण्यकी उत्पत्तिका वर्णन मेरे सामने पृथ्वीपर पड़ गये। यह देख मैंने उन्हें उठा लिया और कहा-' - बताओ, मैं तुम्हारा कौन-सा उपकार करूँ ?' राजा बोले- ब्रह्मन् ! इस घृणित आहारसे तथा जिस पापके कारण यह मुझे प्राप्त हुआ है, उससे मेरा आज उद्धार कीजिये, जिससे मुझे अक्षय लोककी प्राप्ति हो सके । ब्रह्मर्षे! अपने उद्धारके लिये मैं यह दिव्य आभूषण आपकी भेंट करता हूँ। इसे लेकर मुझपर कृपा कीजिये । - -* दण्डकारण्यकी उत्पत्तिका वर्णन पुलस्त्यजी कहते हैं— अगस्त्यजीके ये अद्भुत वचन सुनकर श्रीरघुनाथजीने विस्मयके कारण पुनः प्रश्न किया— 'महामुने! वह वन, जिसका विस्तार सौ योजनका था, पशु-पक्षियोंसे रहित, निर्जन, सूना और भयङ्कर कैसे हुआ ?' अगस्त्यजी बोले- राजन् ! पूर्वकालके सत्ययुगकी बात है, वैवस्वत मनु इस पृथ्वीका शासन करनेवाले राजा थे। उनके पुत्रका नाम इक्ष्वाकु था। इक्ष्वाकु बड़े ही सुन्दर और अपने भाइयोंमें सबसे बड़े थे। महाराज उनको बहुत मानते थे। उन्होंने इक्ष्वाकुको भूमण्डलके राज्यपर अभिषिक्त करके कहा - 'तुम पृथ्वीके राजवंशोंके अधिपति (सम्राट्) बनो।' रघुनन्दन ! 'बहुत अच्छा' कहकर इक्ष्वाकुने पिताकी आज्ञा स्वीकार की। तब वे अत्यन्त सन्तुष्ट होकर बोले- 'बेटा! अब तुम दण्डके द्वारा प्रजाकी रक्षा करो। किन्तु दण्डका अकारण प्रयोग न करना। मनुष्योंके द्वारा अपराधियोंको जो दण्ड दिया जाता है, वह शास्त्रीय विधिके अनुसार [उचित अवसरपर] प्रयुक्त होनेपर राजाको स्वर्गमें ले जाता है। इसलिये महाबाहो ! तुम दण्डके समुचित प्रयोगके लिये सदा सचेष्ट रहना । ऐसा करनेपर संसारमें तुम्हारे द्वारा अवश्य परम धर्मका पालन होगा।' इस प्रकार एकाग्र चित्तसे अपने पुत्र इक्ष्वाकुको बहुत-से उपदेश दे महाराज मनु बड़ी प्रसन्नताके साथ ११९ रघुनन्दन ! उस स्वर्गवासी राजाकी ये दुःखभरी बातें सुनकर उसके उद्धारकी दृष्टिसे ही वह दान मैने स्वीकार किया, लोभवश नहीं उस आभूषणको लेकर ज्यों ही मैंने अपने हाथपर रखा, उसी समय उनका वह मुर्दा शरीर अदृश्य हो गया। फिर मेरी आज्ञा लेकर वे राजर्षि बड़ी प्रसन्नताके साथ विमानद्वारा ब्रह्मलोकको चले गये। इन्द्रके समान तेजस्वी राजर्षि वेतने ही मुझे यह सुन्दर आभूषण दिया था और इसे देकर वे पापसे मुक्त हो गये। ब्रह्मलोकको सिधार गये। तत्पश्चात् राजा इक्ष्वाकुको यह चिन्ता हुई कि 'मैं कैसे पुत्र उत्पन्न करूँ ?' इसके लिये उन्होंने नाना प्रकारके शास्त्रीय कर्म (यज्ञ-यागादि) किये और उनके द्वारा राजाको अनेकों पुत्रोंकी प्राप्ति हुई। देवकुमारके समान तेजस्वी राजा इक्ष्वाकुने पुत्रोंको जन्म देकर पितरोंको सन्तुष्ट किया। रघुनन्दन ! इक्ष्वाकुके पुत्रोंमें जो सबसे छोटा था, वह [गुणों में] सबसे श्रेष्ठ था। वह शूर और विद्वान् तो था ही, प्रजाका आदर करनेके कारण सबके विशेष गौरवका पात्र हो गया था। उसके बुद्धिमान् पिताने उसका नाम दण्ड रखा और विन्ध्यगिरिके दो शिखरोंके बीचमें उसके रहनेके लिये एक नगर दे दिया। उस नगरका नाम मधुमत्त था । धर्मात्मा दण्डने बहुत वर्षोंतक वहाँका अकण्टक राज्य किया । तदनन्तर एक समय, जब कि चारों ओर चैत्र मासकी मनोरम छटा छा रही थी, राजा दण्ड भार्गव मुनिके रमणीय आश्रमके पास गया। वहाँ जाकर उसने देखा - भार्गव मुनिकी परम सुन्दरी कन्या, जिसके रूपकी कहीं तुलना नहीं थी, वनमें घूम रही है। उसे देखकर राजा दण्डके मनमें पापका उदय हुआ और वह कामबाणसे पीड़ित हो कन्याके पास जाकर बोलासुन्दरी! तुम कहाँसे आयी हो ? शोभामयी ! तुम किसकी कन्या हो ? मैं कामसे पीड़ित होकर तुमसे ये बातें पूछ रहा हूँ। वरारोहे! मैं तुम्हारा दास हूँ। सुन्दरि ! मुझ भक्तको अङ्गीकार करो।'
SR No.034102
Book TitleSankshipta Padma Puran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUnknown
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages1001
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size73 MB
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