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________________ * अर्चयस्व हृषीकेश यदीच्छसि परं पदम् . [ संक्षिप्त पद्मपुराण अपनी माताकी ऐसी बात सुनकर शत्रुघ्नने उत्तर सत्कार करना तथा चरण दबाना आदि सभी प्रकारकी दिया-'माँ ! मैं अपने शरीरकी भाँति पुष्कलकी रक्षा सेवाएँ करना। उनके प्रत्येक कार्य-उनकी आज्ञाका पालन करनेमें आदर एवं उत्साहके साथ प्रवृत्त होना। यहाँ लोपामुद्रा आदि जितनी पतिव्रता देवियाँ आयी हुई हैं, वे सभी अपने तपोबलसे सुशोभित एवं कल्याणमयी है; तुम्हारे द्वारा उनमेंसे किसीका अपमान न हो जाय, इसके लिये सदा सावधान रहना।' शेषजी कहते हैं-पुष्कल जब इस प्रकार उपदेश दे चुके तो उनकी पतिव्रता पत्नी कान्तिमतीने पतिकी ओर प्रेमपूर्ण दृष्टि से देखा तथा अत्यन्त विश्वस्त होकर मन्द-मन्द मुसकराती हुई वह गद्गद वाणीमें बोली-'नाथ ! संग्राममें आपकी सर्वत्र विजय हो, आपको चाचा शत्रुघ्नजीकी आज्ञाका सर्वथा पालन करना चाहिये तथा जिस प्रकार भी घोड़ेकी रक्षा हो उसके लिये सचेष्ट रहना चाहिये। स्वामिन् ! आप शत्रुओपर विजय प्राप्त करके अपने श्रेष्ठ कुलकी शोभा बढ़ाइये। महाबाहो ! जाइये, इस यात्रामें आपका कल्याण हो। यह है आपका धनुष, जो उत्तम गुण (सुदृढ़ प्रत्यञ्चा) करूँगा तथा जैसा मेरा नाम है उसके अनुसार शत्रुओंका से सुशोभित है; इसे शीघ्र ही हाथमें लीजिये, इसकी नाश करके प्रसन्नतापूर्वक लौटूंगा। तुम्हारे इन युगल टङ्कार सुनकर आपके शत्रुओंका दल भयसे व्याकुल हो चरणोंका स्मरण करके मैं कल्याणका ही भागी होऊँगा।' उठेगा। वीर ! ये आपके दोनों तरकश हैं। इन्हें बाँध ऐसा कहकर वीर शत्रुघ्न वहाँसे चल दिये तथा यज्ञ- लीजिये, जिससे युद्ध में आपको सुख मिले। इसमें मण्डपसे छोड़ा हुआ वह यज्ञका अश्व अस्त्र-शस्त्रोंकी वैरियोंको टुकड़े-टुकड़े कर डालनेवाले अनेक बाण भरे विद्यामें प्रवीण सम्पूर्ण योद्धाओद्वारा चारों ओरसे घिरकर हैं। प्राणनाथ ! कामदेवके समान सुन्दर अपने शरीरपर सबसे पहले पूर्व दिशाकी ओर गया। उसका वेग वायुके यह सुदृढ़ कवच धारण कीजिये, जो विद्युत्की प्रभाके समान था। जब वे चलनेको उद्यत हुए तो उनकी दाहिनी समान अपने महान् प्रकाशसे अन्धकारको दूर किये देता बाँह फड़क उठी और उन्हें कल्याण तथा विजयकी है। प्रियतम अपने मस्तकपर यह शिरस्त्राण (मुकुट) सूचना देने लगी। उधर पुष्कल अपने सुन्दर एवं भी पहन लीजिये, जो मनको लुभानेवाला है। साथ ही समृद्धिशाली महलमें गये और वहाँ अपनी पतिव्रता मणियों और रत्नोंसे विभूषित ये दो उज्ज्वल कुण्डल हैं, पलीसे मिले, जो स्वामीके दर्शनके लिये उत्कण्ठित थी इन्हें कानोंमें धारण कीजिये। और उन्हें देखकर हर्ष भर गयी थी। उससे मिलकर पुष्कलने कहा-प्रिये ! तुम जैसा कहती हो, पुष्कलने कहा-'भद्रे ! मैं चाचा शत्रुघ्नका पृष्ठ-पोषक वह सब मैं करूँगा। वीरपत्नी कान्तिमती ! तुम्हारी होकर रथपर सवार हो यज्ञके घोड़ेकी रक्षाके लिये जा इच्छाके अनुसार मेरी उत्तम कीर्तिका विस्तार होगा। रहा हूँ इस कार्यके लिये मुझे श्रीरघुनाथजीकी आज्ञा ऐसा कहकर पराक्रमी वीर पुष्कलने कान्तिमतीके मिल चुकी है। तुम यहाँ रहकर मेरी समस्त माताओंका दिये हुए कवच, सुन्दर मुकुट, धनुष और विशाल
SR No.034102
Book TitleSankshipta Padma Puran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUnknown
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages1001
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size73 MB
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