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________________ पातालखण्ड] . शत्रुघ्न और पुष्कल आदिका घोडेके साथ जाना तथा राजा समुदकी कथा . 431 . . . . . . . . . . Antarmanasant.m..marrianR.. केवल निमित्तमात्र हैं। यदि देवता, असुर और निपुण, महान् विद्वान, धनुर्धर तथा अच्छी प्रकार मनुष्योंसहित सारी त्रिलोकी युद्धके लिये उपस्थित हो जाय बाणोंका सन्धान करनेवाले अनेकों वीर उपस्थित हैं। तो उसे भी मैं आपकी कृपासे रोकने में समर्थ हो सकता हैं उनके नाम ये हैं- प्रतापाय, नीलरत्न, लक्ष्मीनिधि, ये सब बातें कहनेकी आवश्यकता नहीं है, मेरा पराक्रम रिपुताप, उग्राश्व और शस्त्रवित्-ये सभी बड़े-चढ़े राजा देखकर प्रभुको स्वयं ही सब कुछ ज्ञात हो जायगा।' चतुरङ्गिणी सेनाके साथ कवच आदिसे सुसज्जित होकर ऐसा कहते हुए भरत-कुमारकी बातें सुनकर जायें और आपके घोड़ेकी रक्षा करते हुए शत्रुघ्रजीकी भगवान् श्रीरामने उनकी प्रशंसा की तथा 'साधु-साधु' आज्ञा शिरोधार्य करें।' मन्त्रीकी यह बात सुनकर कहकर उनके कथनका अनुमोदन किया। इसके बाद श्रीरामचन्द्रजीको बड़ा हर्ष हुआ और उन्होंने उनके बताये वानरवीरोंमें प्रधान हनुमान्जी आदि सब लोगोंसे हुए सभी योद्धाओंको जानेके लिये आदेश दिया। कहा—'महावीर हनुमान् ! मेरी बात ध्यान देकर सुनो, श्रीरघुनाथजीकी आज्ञा पाकर उन्हें बड़ी प्रसन्नता हुई, मैंने तुम्हारे ही प्रसादसे यह अकण्टक राज्य पाया है। क्योंकि वे बहुत दिनोंसे युद्धकी इच्छा रखते थे और हमलोगोंने मनुष्य होकर भी जो समुद्रको पार किया तथा रणमें उन्मत्त होकर लड़नेवाले थे। श्रीसीतापतिकी सीताके साथ जो मेरा मिलाप हुआ; यह सब कुछ मैं प्रेरणासे वे सभी राजा कवच आदिसे सुसज्जित हो तुम्हारे ही बलका प्रभाव समझता हूँ। मेरी आज्ञासे तुम अस्त्र-शस्त्र लेकर शत्रुनके निवासस्थानपर गये। भी सेनाके रक्षक होकर जाओ। मेरे भाई शत्रुघ्नकी मेरी तदनन्तर ऋषिकी आज्ञा पाकर श्रीरामचन्द्रजीने ही भांति तुम्हें रक्षा करनी चाहिये / महामते ! जहाँ-जहाँ आचार्य आदि सभी ऋत्विज महर्षियोंको शास्त्रोक्त उत्तम भाई शत्रुघ्नकी बुद्धि विचलित हो वहाँ-वहाँ तुम इन्हें दक्षिणाएँ देकर उनका विधिवत् पूजन किया। उस समय समझा-बुझाकर कर्तव्यका ज्ञान कराना।' श्रीरघुनाथजीके यज्ञमें सब ओर यही बात सुनायी देती - परमबुद्धिमान् श्रीरामचन्द्रजीका यह श्रेष्ठ वचन थी-देते जाओ, देते जाओ, खूब धन लुटाओ, सुनकर हनुमान्जीने उनकी आज्ञा शिरोधार्य की और किसीसे 'नहीं' मत करो, साथ ही समस्त भोगजानेके लिये तैयार होकर प्रणाम किया। तब महाराजने सामग्रियोंसे युक्त अन्नका दान करो, अन्नका दान करो।' जाम्बवान्को भी साथ जानेका आदेश दिया और इस प्रकार वह यज्ञ चल रहा था। उसमें दक्षिणा पाये हुए कहा-'अङ्गद, गवय, मयन्द, दधिमुख, वानरराज श्रेष्ठ ब्राह्मणोंकी भरमार थी। वहाँ सभी तरहके शुभ सुग्रीव, शतबलि, अक्षिक, नील, नल, मनोवेग तथा कर्मोका अनुष्ठान हो रहा था / इधर श्रीरामचन्द्रजीके छोटे अधिगन्ता आदि सभी वानर सेनाके साथ जानेको तैयार भाई शत्रुघ्न अपनी माताके पास जा उन्हें प्रणाम करके हो जायें। सब लोग रथों तथा सुवर्णमय आभूषणोंसे बोले-'कल्याणमयी माँ ! मैं घोड़ेको रक्षाके लिये जा विभूषित अच्छे-अच्छे घोड़ोंपर सवार हो बख्तर और रहा हूँ, मुझे आज्ञा दो। तुम्हारी कृपासे शत्रुओंको टोपसे सज-धजकर शीघ्र यहाँसे यात्रा करें।' जीतकर विजयको शोभासे सम्पन्न हो अन्य महाराजाओं शेषजी कहते हैं-तत्पश्चात् बल और पराक्रमसे तथा घोड़ेको साथ लेकर लौट आऊँगा।' शोभा पानेवाले श्रीरामचन्द्रजीने अपने उत्तम मन्त्री माता बोली-बेटा ! जाओ, महावीर ! तुम्हारा सुमन्त्रको बुलाकर कहा-'मन्त्रिवर ! बताओ, इस मार्ग मङ्गलमय हो, सुमते ! तुम अपने समस्त शत्रुओंको कार्यमें और किन-किन लोगोंको नियुक्त करना चाहिये? जीतकर फिर यहाँ लौट आओ। तुम्हारा भतीजा पुष्कल कौन-कौन मनुष्य अश्वकी रक्षा करने में समर्थ हैं?' धर्मज्ञोंमें श्रेष्ठ है, उसकी रक्षा करना। बेटा ! तुम उनका प्रश्न सुनकर सुमन्त्र बोले-'श्रीरघुनाथजी। पुष्कलके साथ सकुशल लौटकर आओगे, तभी मुझे सुनिये, आपके यहाँ सम्पूर्ण शस्त्र और अस्त्रके ज्ञानमें अधिक प्रसन्नता होगी।
SR No.034102
Book TitleSankshipta Padma Puran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUnknown
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages1001
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size73 MB
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