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________________ भूमिखण्ड ] • राजा पृथुके जन्म और चरित्रका वर्णन . २४१ धर्मका नाश करनेवाला था। राजा वेन वेदोक्त कौन है। मैं ही सम्पूर्ण भूतों और विशेषतः सब धर्मोकी सदाचाररूप धर्मका परित्याग करके काम, लोभ और उत्पत्तिका कारण हूँ। यदि चाहूँ तो इस पृथ्वीको जला महामोहवश पापका ही आचरण करता था। मद और सकता हूँ, जलमें डुबा सकता हूँ तथा पृथ्वी और मात्सर्यसे मोहित होकर पापके ही रास्ते चलता था। उस आकाशको बैध सकता हूँ।' समय सम्पूर्ण द्विज वेदाध्ययनसे विमुख हो गये। वेनके जब वेनको किसी प्रकार भी अधर्म-मार्गसे हटाया राजा होनेपर प्रजाजनोंमें स्वाध्याय और यज्ञका नाम भी न जा सका, तब महर्षियोंने क्रोधमें भरकर उसे बलनहीं सुनायी पड़ता था। यज्ञमें आये हुए देवता पूर्वक पकड़ लिया। वह विवश होकर छटपटाने लगा। यजमानके द्वारा अर्पण किये हुए सोमरसका पान नहीं उधर क्रोधमें भरे हुए ऋषियोंने राजा वेनकी बायीं करते थे। वह दुष्टात्मा राजा ब्राह्मणोंसे प्रतिदिन यही जाँघको मथना आरम्भ किया। उससे काले अञ्जनकी कहता था कि 'स्वाध्याय न करो, होम करना छोड़ दो, राशिके समान एक नाटे कदका मनुष्य प्रकट हुआ। दान न दो और यज्ञ भी न करो।' प्रजापति वेनका उसकी आकृति विलक्षण थी। लंबा मुँह, विकराल विनाशकाल उपस्थित था; इसीलिये उसने यह क्रूर आँखें, नीले कवचके समान काला रंग, मोटे और चौड़े घोषणा की थी। वह सदा यही कहा करता था कि 'मैं कान, बेडौल बढ़ी हुई बाँहें और विशाल भद्दा-सा ही यजन करनेके योग्य देवता, मैं ही यज्ञ करनेवाला पेट-यही उसका हुलिया था। ऋषियोंने उसकी ओर यजमान तथा मैं ही यज्ञ-कर्म हैं। मेरे ही उद्देश्यसे यज्ञ देखा और कहा–'निषीद (बैठ जाओ)।' उनकी बात और होमका अनुष्ठान होना चाहिये। मैं ही सनातन सुनकर वह भयसे व्याकुल हो बैठ गया। [ऋषियोंने विष्णु, मैं ही ब्रह्मा, मैं ही रुद्र, मैं ही इन्द्र तथा सूर्य और 'निषीद' कहकर उसे बैठनेकी आज्ञा दी थी; इसलिये वायु हूँ। हव्य और कव्यका भोक्ता भी सदा मैं ही हूँ। उसका नाम 'निषाद' पड़ गया।] पर्वतों और वनोंमें ही मेरे सिवा दूसरा कोई नहीं है।' उसके वंशकी प्रतिष्ठा हुई। निषाद, किरात, भील, यह सुनकर महान् शक्तिशाली मुनियोंको वेनके प्रति नाहलक, भ्रमर, पुलिन्द तथा और जितने भी बड़ा क्रोध हुआ। वे सब एकत्रित हो उस पापबुद्धि , म्लेच्छजातिके पापाचारी मनुष्य हैं, वे सब वेनके उसी राजाके पास जाकर बोले-राजाको धर्मका मूर्तिमान् अङ्गसे उत्पन्न हुए हैं। स्वरूप माना गया है। इसलिये प्रत्येक राजाका यह कर्तव्य तब यह जानकर कि राजा वेनका पाप निकल है कि वह धर्मकी रक्षा करे। हमलोग बारह वर्षों में समाप्त गया, समस्त ऋषियोंको बड़ी प्रसन्नता हुई। अब उन्होंने होनेवाले यज्ञकी दीक्षा ग्रहण कर रहे हैं। तुम अधर्म न राजाके दाहिने हाथका मन्थन आरम्भ किया। उससे करो; क्योंकि ऐसा करना सत्पुरुषोंका धर्म नहीं है। पहले तो पसीना प्रकट हुआ; किन्तु जब पुनः जोरसे महाराज ! तुमने यह प्रतिज्ञा की है कि 'मैं राजा होकर मन्थन किया गया, तब वेनके उस सुन्दर हाथसे एक धर्मका पालन करूँगा, अतः उस प्रतिज्ञाके अनुसार धर्म पुरुषका प्रादुर्भाव हुआ, जो बारह आदित्योंके समान करो और सत्य एवं पुण्यको आचरणमें लाओ।' तेजस्वी थे। उनके मस्तकपर सूर्यके समान चमचमाता ऋषियोंकी उपर्युक्त बातें सुनकर वह क्रोधसे हुआ मुकुट और कानोंमें कुण्डल शोभा पा रहे थे। उन आगबबूला हो उठा और उनकी ओर दृष्टिपात करके महाबली राजकुमारने आजगव नामका आदि धनुष, द्वितीय यमराजकी भाँति बोला-'अरे ! तुमलोग मूर्ख दिव्य बाण और रक्षाके लिये कान्तिमान्, कवच धारण हो, तुम्हारी बुद्धि मारी गयी है। अतः निश्चय ही तुमलोग कर रखे थे। उनका नाम 'पृथु' हुआ। वे बड़े मुझे नहीं जानते। भला ज्ञान, पराक्रम, तपस्या और सौभाग्यशाली, वीर और महात्मा थे। उनके जन्म लेते ही सत्यके द्वारा मेरी समानता करनेवाला इस पृथ्वीपर दूसरा सम्पूर्ण प्राणियोंमें हर्ष छा गया। उस समय समस्त
SR No.034102
Book TitleSankshipta Padma Puran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUnknown
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages1001
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size73 MB
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