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________________ . . अर्थयस्व हबीकेशं यदीच्छसि परं पदम् .. [संक्षिप्त पयपुराण उस समय कामोदा भगवान्के दुःखसे दुःखी हो गयो फूलोसे अपने स्वामी शङ्करजीकी पूजा करने लगी। और गङ्गाजीके तटपर जलके समीप बैठकर बारंबार इतनेमें ही उस पापी दानवने आकर देवीकी दिव्य हाहाकार करती हुई करुण स्वरसे विलाप करने लगी। पूजाको नष्ट कर दिया। वह दुष्टात्मा कालके वशीभूत हो वह अपने नेत्रोंसे जो दुःखके आँसू बहाती थी, वे हो चुका था। उसने पार्वतीद्वारा पारिजातके फूलोंसे की हुई गङ्गाजीके जलमें गिरते थे। पानीमें पड़ते ही वे पुनः पूजाको मिटा दिया और स्वयं लोभवश शोकजनित पद्य-पुष्पके रूपमें प्रकट होते और धाराके साथ बह पुष्पोंसे शङ्करजीका पूजन करने लगा। उस समय जाते थे। दानवश्रेष्ठ विहुण्ड भगवान् श्रीविष्णुकी मायासे उस दुष्टके नेत्रोंसे आँसूकी अविरल बूँदें निकलकर मोहित था। उसने उन फूलोंको देखा; किन्तु महर्षि शिवलिङ्गाके मस्तकपर पड़ रही थीं। यह देखकर देवीने शुक्राचार्यके बतानेपर भी वह इस बातको न जान सका ब्राह्मणके रूपमें ही पूछा-आप कौन है, जो शोकाकुल कि ये दुःखके आँसुओंसे उत्पन्न फूल हैं। उन्हें देखकर चित्तसे भगवान् शिवकी पूजा कर रहे हैं? ये शोकजनित वह असुर बड़े हर्षमें भर गया और उन सबको जलसे अपवित्र आँसू भगवान्के मस्तकपर पड़ रहे हैं। आप निकाल लाया। फिर वह उन खिले हुए पद्म-पुष्पोंसे ऐसा क्यों करते हैं? मुझे इसका कारण बताइये। गिरिजापतिकी पूजा करने लगा। विष्णुको मायाने उसके विहुण्ड बोला-ब्रह्मन् ! कुछ दिन हुए मैने एक मनको हर लिया था; अतः विवेकशून्य होकर उस सुन्दरी स्त्री देखी, जो सब प्रकारको सौभाग्य-सम्पदासे दैत्यराजने सात करोड़ फूलोंसे भगवान् शिवका पूजन युक्त और समस्त शुभ लक्षणोसे सम्पन्न थी। देखने में किया। यह देख जगन्माता पार्वतीको बड़ा क्रोध हुआ; वह कामदेवका विशाल निकेतन जान पड़ती थी। उसके उन्होंने शङ्करजीसे कहा-'नाथ ! इस दुर्बुद्धि दानवका मोहसे मैं संतप्त हो उठा, कामसे मेरा चित्त व्याकुल हो कुकर्म तो देखिये-यह शोकसे उत्पन्न फूलोद्वारा गया। जब मैंने उससे समागमको प्रार्थना की, तब वह आपका पूजन कर रहा है, इसे दुःख और संताप ही बोली-'कामोदके फूलोसे भगवान् शङ्करकी पूजा करो मिलेगा; यह सुख पानेका अधिकारी नहीं है।' तथा उन्हीं फूलोको माला बनाकर मेरे कण्ठमें पहनाओ। भगवान् शिव बोले-भद्रे! तुम सच कहती सात करोड़ पुष्पोंसे महेश्वरका पूजन करो।' उस स्त्रीको हो, इस पापीने सत्यपूर्ण उद्योगको पहलेसे ही छोड़ रखा पानेके लिये ही मैं पूजा करता हूँ क्योंकि भगवान् शिव है। इसकी चेतना कामसे आकुल है; अतः यह दुष्टात्मा अभीष्ट फलके दाता हैं। गङ्गाजीके जलमें पड़े हुए शोकजनित फूलोंको ग्रहण देवीने कहा-अरे ! कहाँ तेरा भाव है, कहाँ करता है तथा उनसे मेरा पूजन भी करता है। दुःख और ध्यान है और कहाँ तुझ दुरात्माका ज्ञान है ? [तू कामोद शोकसे उत्पन्न ये फूल तो शोक और संताप ही देनेवाले पुष्पोंसे पूजा कर रहा है न?] अच्छा, बता, कामोदाका है; इनके द्वारा किसीका कल्याण कैसे हो सकता है। सुन्दर रूप कैसा है? तूने उसके हास्यसे उत्पन्न सुन्दर देवि ! मैं तो समझता हूँ, यह ध्यानहीन है; क्योंकि फूल कहाँ पाये हैं? .....। अब पापाचारी हो गया है। अतः तुम इसे अपने ही विहुण्ड बोला-'ब्रह्मन् ! मैं भाव और ध्यान तेजसे मार डालो। कुछ नहीं जानता । कामोदाको मैंने कभी देखा भी नहीं भगवान् शङ्करके ये वचन सुनकर भगवती पार्वतीने है। गङ्गाजीके जलमें जो फूल बहकर आते हैं, उन्हींका कहा-'नाथ ! मैं आपकी आज्ञासे इसका अवश्य में प्रतिदिन संग्रह करता हूँ और उन्हींसे एकमात्र संहार करूंगी।' यो कहकर देवी वहाँ गयीं और शङ्करजीका पूजन करता हूँ। महात्मा शुक्राचार्यने मेरे विहुण्डके वधका उपाय सोचने लगी। वे एक महात्मा सामने इस फूलका परिचय दिया था। मैं उन्हींकी ब्राह्मणका मायामय रूप बनाकर पारिजातके सुन्दर आज्ञासे नित्यप्रति पूजा करता हूँ।
SR No.034102
Book TitleSankshipta Padma Puran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUnknown
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages1001
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size73 MB
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