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________________ पातालखण्ड ] * राजा रत्नप्रीवका भगवानका दर्शन करके रानी आदिके साथ वैकुण्ठको जाना . 455 राजा रत्नग्रीवका नीलपर्वतपर भगवान्का दर्शन करके रानी आदिके साथ वैकुण्ठको जाना तथा शत्रुघ्रका नीलपर्वतपर पहुँचना सुमति कहते हैं-सुमित्रानन्दन ! गण्डकी हैं। वे भक्तवत्सल नाम धारण करते हैं; अतः नदीका यह अनुपम माहात्म्य सुनकर राजा रत्नग्रीवने हमलोगोंपर शीघ्र ही कृपा करेंगे। वे देवाधिदेवोंके भी अपनेको कृतार्थ माना। उन्होंने उस तीर्थमें स्नान करके शिरोमणि हैं, अपने भक्तोंका कभी परित्याग नहीं करते। अपने समस्त पितरोंका तर्पण किया। इससे उनको बड़ा अबतक उन्होंने अनेकों भक्तोंकी रक्षा की है, इसलिये हर्ष हुआ। फिर शालग्रामशिलाकी पूजाके उद्देश्यसे महामते ! तुम उन्हींका गुणगान करो।' ब्राह्मणकी बात उन्होंने गण्डकी नदीसे चौबीस शिलाएँ ग्रहण की और सुनकर राजाने व्यथित चित्तसे गङ्गा-सागर-सङ्गममें स्नान चन्दन आदि उपचार चढ़ाकर बड़े प्रेमसे उनकी पूजा किया। इसके बाद उन्होंने उपवासका व्रत लिया। 'जब की। तत्पश्चात् वहाँ दीनों और अंधोको विशेष दान देकर भगवान् पुरुषोत्तम दर्शन देनेकी कृपा करेंगे तभी उनकी राजाने पुरुषोत्तममन्दिरको जानेके लिये प्रस्थान किया। पूजा करके भोजन करूंगा, अन्यथा निराहार ही रहूँगा।' इस प्रकार क्रमशः यात्रा करते हुए वे उस तीर्थमें पहुँचे, ऐसा नियम करके वे गङ्गासागरके तटपर बैठ गये और जहाँ गङ्गा और समुद्रका सङ्गम हुआ है। वहाँ जाकर भगवान्का गुणगान करते हुए उपवासव्रतका पालन उन्होंने ब्राह्मणोंसे प्रसन्नतापूर्वक पूछा-'स्वामिन् ! करने लगे। बताइये, नीलाचल यहाँसे कितनी दूर है? जहाँ साक्षात् राजा बोले-प्रभो! आप दीनोंपर दया भगवान् पुरुषोत्तम निवास करते हैं तथा देवता और करनेवाले हैं; आपकी जय हो। भक्तोंका दुःख दूर असुर भी जिनके सामने मस्तक नवाते हैं।' करनेवाले पुरुषोत्तम ! आपका नाम मङ्गलमय है, उस समय तपस्वी ब्राह्मणको बड़ा आश्चर्य हुआ। आपकी जय हो। भक्तजनोंकी पीड़ाका नाश करनेके उन्होंने राजासे बड़े आदरके साथ कहा-'राजन् ! लिये ही आपने सगुण विग्रह धारण किया है, आप नीलपर्वतका विश्ववन्दित स्थान है तो यही; किन्तु न जाने दुष्टोंका विनाश करनेवाले हैं; आपकी जय हो ! जय वह हमें दिखायी क्यों नहीं देता।' वे बारंबार इस बातको हो !! आपके भक्त प्रह्लादको उसके पिता दैत्यराजने बड़ी दुहराने लगे कि 'नीलाचलका वह स्थान, जो महान् व्यथा पहुँचायी-शूलीपर चढ़ाया, फाँसी दी, पानीमें पुण्यफल प्रदान करनेवाला है तथा जहाँ भगवान् डुबोया, आगमें जलाया और पर्वतसे नीचे गिराया; किन्तु पुरुषोत्तमका निवास है, यही है। उसका दर्शन क्यों नहीं आपने नृसिंहरूप धारण करके प्रह्लादको तत्काल होता? यह बात समझमें नहीं आती। इसी स्थानपर मैंने संकटसे बचा लिया; उसका पिता देखता ही रह गया। नान किया था, यहीं मुझे वे भील दिखायी दिये थे और मतवाले गजराजका पैर ग्राहके मुखमें पड़ा था और वह इसी मार्गसे मैं पर्वतके ऊपर चढ़ा था। यह बात सुनकर अत्यन्त दुःखी हो रहा था; उसकी दशा देख आपके राजाके मनमें बड़ी व्यथा हुई, वे कहने लगे- हृदयमें करुणा भर आयी और आप उसे बचानेके लिये 'विप्रवर ! मुझे पुरुषोत्तमका दर्शन कैसे होगा? तथा शीघ्र ही गरुड़पर सवार हुए; किन्तु आगे चलकर आपने वह नीलपर्वत कैसे दिखायी देगा? मुझे इसका कोई पक्षिराज गरुड़को भी छोड़ दिया और हाथमे चक्र लिये उपाय बताइये।' तब तपस्वी ब्राह्मणने विस्मित होकर बड़े वेगसे दौड़े। उस समय अधिक वेगके कारण कहा-'राजन् ! हमलोग गङ्गासागर-सङ्गममें स्नान आपकी वनमाला जोर-जोरसे हिल रही थी और करके यहाँ तबतक ठहरे रहे जबतक कि नीलाचलका पीताम्बरका छोर आकाशमें फहरा रहा था। आपने दर्शन न हो जाय / भगवान् पुरुषोत्तम पापहारी कहलाते तत्काल पहुँचकर गजराजको ग्राहके चंगुलसे छुड़ाया
SR No.034102
Book TitleSankshipta Padma Puran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUnknown
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages1001
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size73 MB
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