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________________ स्वर्गखण्ड ] • भगवद्भक्तिकी प्रशंसा तथा हरिभजनकी आवश्यकता. ----------------------------------------------------------------------------------------------------- कल्याणमय आश्रम- धर्मका वर्णन किया। इसे मुनिवर भगवान् ब्रह्माजीने पूर्वकालमें उपदेश किया था। संन्यासधर्मसे संबन्ध रखनेवाला यह परम उत्तम कल्याणमय ज्ञान साक्षात् स्वयम्भू ब्रह्माजीका बताया हुआ है; अतः पुत्र, ब्राह्मणो ! इस प्रकार मैंने आपलोगोंसे संन्यासियोंके शिष्य तथा योगियोंके सिवा दूसरे किसीको इसका उपदेश नहीं करना चाहिये। द्विजवरो ! इस प्रकार मैंने संन्यासियोंके नियमोंका विधान बताया है; यह देवेश्वर ब्रह्माजीके संतोषका एकमात्र साधन है। जो मन लगाकर प्रतिदिन इन नियमोंका पालन करते हैं, उनका जन्म अथवा मरण नहीं होता। * भगवद्भक्तिकी प्रशंसा, स्त्री-सङ्गकी निन्दा, भजनकी महिमा, ब्राह्मण, पुराण और गङ्गाकी महत्ता, जन्म आदिके दुःख तथा हरिभजनकी आवश्यकता सूतजी कहते हैं - ब्राह्मणो! पूर्वकालमें अमित तेजस्वी व्यासजीने इस प्रकार आश्रम धर्मका वर्णन किया था। इतना उपदेश करनेके पश्चात् उन सत्यवती नन्दन भगवान् व्यासने समस्त मुनियोंको भलीभाँति आश्वासन दिया और जैसे आये थे, वैसे ही वे चले गये। वही यह वर्णाश्रम धर्मकी विधि है, जिसका मैंने आपलोगोंसे वर्णन किया है। इस प्रकार वर्ण धर्म तथा आश्रम- धर्मका पालन करके ही मनुष्य भगवान् विष्णुका प्रिय होता है, अन्यथा नहीं द्विजवरो! अब इस विषयमें मैं आपलोगोंको रहस्यकी बात बताता हूँ, सुनिये। यहाँ वर्ण और आश्रमसे सम्बन्ध रखनेवाले जो धर्म बताये गये हैं, वे सब हरि-भक्तिकी एक कलाके अंशके अंशकी भी समानता नहीं कर सकते। कलियुगमें मनुष्योंके लिये इस मर्त्यलोकमें एकमात्र हरि-भक्ति ही साध्य है। जो कलियुगमें भगवान् नारायणका पूजन करता है, वह धर्मके फलका भागी होता है। अनेकों नामोंद्वारा जिन्हें पुकारा जाता है तथा जो इन्द्रियोंके नियन्ता हैं, उन परम शान्त सनातन भगवान् दामोदरको हृदयमें स्थापित करके मनुष्य तीनों लोकोंपर विजय पा जाता है। जो द्विज हरिभक्तिरूपी अमृतका पान कर लेता है, वह कलिकालरूपी साँपके डँसनेसे फैले ――――――― ४०३ हुए पापरूपी भयंकर विषसे आत्मरक्षा करनेके योग्य हो जाता है। यदि मनुष्योंने श्रीहरिके नामका आश्रय ग्रहण कर लिया तो उन्हें अन्य मन्त्रोंके जपकी क्या आवश्यकता है। * जो अपने मस्तकपर श्रीविष्णुका चरणोदक धारण करता है, उसे स्नानसे क्या लेना है। जिसने अपने हृदयमें श्रीहरिके चरणकमलोंको स्थापित कर लिया है, उसको यज्ञसे क्या प्रयोजन है। जिन्होंने सभामें भगवान्‌की लीलाओंका वर्णन किया है, उन्हें दानकी क्या आवश्यकता है जो श्रीहरिके गुणोंका श्रवण करके बारंबार हर्षित होता है, भगवान् श्रीकृष्णमें चित्त लगाये रखनेवाले उस भक्त पुरुषको वही गति प्राप्त होती है, जो समाधिमें आनन्दका अनुभव करनेवाले योगीको मिलती है। पाखण्डी और पापासक्त पुरुष उस आनन्दमें विघ्न डालनेवाले बताये गये हैं। नारियाँ तथा उनका अधिक सङ्ग करनेवाले पुरुष भी हरिभक्तिमें बाधा पहुँचानेवाले हैं। स्त्रियाँ नेत्रोंके कटाक्षसे जो संकेत करती हैं, उसका उल्लङ्घन करना देवताओंके लिये भी कठिन होता है। जिसने उसपर विजय पा ली है, वही संसारमें भगवान्का भक्त कहलाता है। मुनि भी इस लोकमें नारीके चरित्रपर लुभाकर मतवाले हो उठते हैं। ब्राह्मणो ! जो लोग हृषीकेशं पुरुहूतं सनातनम् ॥ * कलौ नारायणं देवं यजते यः स धर्मभाक्। दामोदरं हृदि कृत्वा परं शान्तं जितमेव जगत्त्रयम्। कलिकालोरगादेशात् किल्विषात् कालकूटतः ॥ हरिभक्तिसुधां पीत्वा उल्लङ्घ्यो भवति द्विजः । किं जपैः श्रीहरेर्नाम गृहीतं यदि मानुषैः ॥ संप०पु० १४ (६१ / ६–८)
SR No.034102
Book TitleSankshipta Padma Puran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUnknown
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages1001
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size73 MB
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