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• अर्चयस्व हषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् .
[संक्षिप्त पद्मपुराण
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उपवास और सौ प्राणायाम करने चाहिये। हो जाते हैं। इसलिये महेश्वरका चिन्तन करते हुए सदा
बहुत बड़ी आपत्तिमें पड़नेपर भी संन्यासीको किसी उन्हींके ध्यानमें संलग्न रहना चाहिये । जो परम ज्योतिःदूसरेके यहाँसे चोरी नहीं करनी चाहिये। स्मृतियोंका स्वरूप ब्रह्म, सबका आश्रय, अक्षर, अव्यय, अन्तरात्मा कथन है कि चोरीसे बढ़कर दूसरा कोई अधर्म नहीं है* तथा परब्रह्म है, उन्हींको भगवान् महेश्वर समझना चाहिये। हिंसा, तृष्णा और याचना-ये आत्मज्ञानका नाश ये महादेवजी केवल परम शिवरूप हैं। ये ही अक्षर, करनेवाली हैं। जिसे धन कहते हैं, वह मनुष्योंका बाह्य अद्वैत एवं सनातन परमपद हैं। वे देव स्वप्रकाशस्वरूप है, प्राण ही है। जो जिसके धनका अपहरण करता है, वह ज्ञान उनकी संज्ञा है, वे ही आत्मयोगरूप तत्त्व है, उनमें मानो उसके प्राण ही हर लेता है। ऐसा करके दुष्टात्मा सबकी महिमा-प्रतिष्ठा होती है, इसलिये उन्हें महादेव पुरुष आचारभ्रष्ट हो अपने व्रतसे गिर जाता है। यदि कहा गया है। जो महादेवजीके सिवा दूसरे किसी संन्यासी अकस्मात् किसी जीवकी हिंसा कर बैठे तो देवताको नहीं देखता, अपने आत्मस्वरूप उन कृच्छ्र, अतिकृच्छ्र अथवा चान्द्रायण व्रतका अनुष्ठान महादेवजीका ही अनुसरण करता है, वह परमपदको प्राप्त करे। यदि भिक्षुका उसकी अपनी इन्द्रियोंकी होता है। जो अपनेको उन परमेश्वरसे भिन्न मानते हैं, वे उन दुर्बलताके कारण किसी स्त्रीको देखकर वीर्यपात हो जाय महादेवजीका दर्शन नहीं पाते; उनका परिश्रम व्यर्थ हो तो उसे सोलह प्राणायाम करने चाहिये। विद्वानो ! दिनमें जाता है। एकमात्र परब्रह्म ही जानने योग्य अविनाशी तत्त्व वीर्यपात होनेपर वह तीन रातका व्रत और सौ प्राणायाम हैं, वे ही देवाधिदेव महादेवजी हैं। इस बातको जान करे। यदि वह एक स्थानका अन्न, मधु, नवीन श्राद्धका लेनेपर मनुष्य कभी बन्धनमें नहीं पड़ता। इसलिये अन्न तथा खाली नमक खा ले तो उसकी शुद्धिके लिये संन्यासी अपने मनको वशमें करके नियमपूर्वक साधनमें प्राजापत्यव्रत बताया गया है।
लगा रहे तथा शान्तभावसे महादेवजीके शरणागत होकर सदा ध्यानमें स्थित रहनेवाले पुरुषके सारे पातक नष्ट ज्ञानयोगमें तत्पर रहे।x
* परमापतेनापि न कार्य स्तेषमन्यतः । स्तेयादभ्यधिकः कचिन्नास्त्यधर्म इति स्मृतिः ॥ (६० । २५)
कृच्छत पहले बताया जा चुका है। तीन दिन सबेरे, तीन दिन शामको और तीन दिन बिना माँगे एक-एक ग्रास अन्न खाय और अन्तमें तीन दिनोंतक उपवास करे-यह अतिकृच्नत है। चान्द्रायणव्रत कई प्रकारका होता है; एक वृद्धि-क्रमसे किया जाता है और दूसरा हास-क्रमसे। प्रतिदिन सायं, प्रातः और मध्याह्नकालमें स्नान करते हुए. पूर्णिमाको पंद्रह ग्रास भोजन करे; तदनन्तर कृष्णपक्षकी प्रतिपदासे एक-एक ग्रास घटाये। चतुर्दशीको एक ग्रास भोजन करके अमावास्याको उपवास करे। फिर शुक्रपक्षकी प्रतिपदाको एक प्रास भोजन करके प्रतिदिन एक-एक ग्रास बढ़ाता रहे। पूर्णिमाको पंद्रह ग्रास खाकर व्रत पूर्ण किया जाता है। यह एक प्रकार है। दूसरा अमावास्याको उपवास करके आरम्भ किया जाता है। इसमें पहले एक-एक प्रास बढ़ाया जाता है, फिर पूर्णिमाके बाद एक-एक प्रास घटाते हुए अमावास्याको उपवास करके समाप्त किया जाता है।
* तीन दिन सबेरे, तीन दिन शामको और तीन दिन अयाचित अन्न भोजन करके अन्तमें तीन दिनोंतक लगातार उपवास करे; यह प्राजापत्यव्रत है।
ध्याननिष्ठस्य सततं नश्यते सर्वपातकम्। तस्मान्महेश्वरं ध्यात्वा तस्य ध्यानपरो भवेत् ॥ यद् ब्रह्म परमं ज्योतिः प्रतिष्ठाक्षरमव्ययम्। योऽन्तरात्मा परं ब्रह्म स विज्ञेयो महेश्वरः । एष देवो महादेवः केवलः परमः शिवः । तदेवाक्षरमद्वैतं सदानिस्यं परं पदम्॥
तस्मिन्महीयते देवे खधाग्नि ज्ञानसंज्ञिते । आत्मयोगात्मके तत्त्वे महादेवस्ततः स्मृतः ॥ (६० । ३२-३५) ४ एकमेव परं ब्रह्म विज्ञेयं तत्त्वमव्ययम् । स देवस्तु महादेवो नैतद् विज्ञाय यध्यते ॥
तस्माद् यतेत नियतं यतिः संयतमानसः । ज्ञानयोगरतः शान्तो महादेवपरायणः ।। (६० । ३८-३९)