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________________ भूमिखण्ड] • ययातिका प्रजावर्गसहित वैकुण्ठधाम-गमन . ३०७ ........... Heta.... हो जायगी। तथापि अब मैं तुम्हारे साथ स्वर्गलोकको बड़े हर्षमें भरकर यह वचन कहा-'सज्जनो! मैं चलूंगा।' यों कहकर राजाने अपने उत्तम पुत्र पूरुको, जो अपनी इस पलीके साथ पहले इन्द्रलोकमें जाता हूँ, फिर सब धर्मोके ज्ञाता, वृद्धावस्थासे युक्त और परम बुद्धिमान् क्रमशः ब्रह्मलोक और शिवलोकमे जाऊँगा। इसके बाद थे, बुलाया और इस प्रकार कहा-'धर्मात्मन् ! मेरी समस्त लोकोंके पाप दूर करनेवाले तथा जीवोंको सद्दति आज्ञासे तुमने धर्मका पालन किया है, अब मेरी प्रदान करनेवाले विष्णुधामको प्राप्त होऊँगा-इसमें वृद्धावस्था दे दो और अपनी युवावस्था ग्रहण करो। तनिक भी सन्देह नहीं है। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और खजाना, सेना तथा सवारियोंसहित मेरा यह राज्य तथा शूद्र-मेरी समस्त प्रजाको कुटुम्बसहित यहीं सुखपूर्वक समुद्रसहित समूची पृथ्वीको भोगो। मैंने इसे तुम्हें ही रहना चाहिये। यही मेरी आज्ञा है। आजसे ये महाबाहु दिया है। दुष्टोको दण्ड देना और साधु पुरुषोंकी रक्षा पूरु आपलोगोंके रक्षक हैं। इनका स्वभाव धीर है, मैंने करना तुम्हारा कर्तव्य है। . इन्हें शासनका अधिकार देकर राजाके पदपर प्रतिष्ठित तात ! तुम्हें धर्मशास्त्रको प्रमाण मानकर उसीके किया है।' अनुसार सब कार्य करना चाहिये। महाभाग ! शास्त्रीय महाराजके यो कहनेपर प्रजाजनोंने कहा- नृपश्रेष्ठ विधिके अनुसार भक्तिपूर्वक ब्राह्मणोंका पूजन करना, सम्पूर्ण वेदोंमें धर्मका ही श्रवण होता है, पुराणों में भी क्योंकि वे तीनों लोकोंमें पूजनीय हैं। पाँचवे-सातवें दिन धर्मकी ही व्याख्या की गयी है, किन्तु पूर्वकालमें किसीने खजानेकी देखभाल करते रहना, सेवकोको धन और धर्मका साक्षात् दर्शन नहीं किया। केवल हमलोगोंने ही भोजन आदिसे प्रसन्न करके सदा इनका आदर करना। चन्द्रवंशमें राजा नहुषके घर उत्पन्न हुए आपके रूपमें गुप्तचरोंको नियुक्त करके राज्यके प्रत्येक अङ्गपर दृष्टि उस दशाङ्ग धर्मका साक्षात्कार किया है। महाराज ! रखना, सदा दान देते रहना, शत्रुपर अनुराग या विश्वास आप सत्यप्रिय, ज्ञान-विज्ञान-सम्पन्न, पुण्यकी महान् न करना, विद्वान् पुरुषोंके द्वारा सदा अपनी रक्षाका प्रबन्ध राशि, गुणोंके आधार तथा सत्यके ज्ञाता हैं। सत्यका रखना। बेटा ! अपने मनको काबूमें रखना, कभी पालन करनेवाले महान् ओजस्वी पुरुष परम-धर्मका शिकार खेलनेके लिये न जाना । स्त्री, खजाना, सेना और अनुष्ठान करते हैं। आपसे बढ़कर दूसरा कोई पुरुष हमारे शत्रुपर कभी विश्वास न करना। सुयोग्य पात्रों और सब देखने में नहीं आया है। आप-जैसे धर्मपालक एवं प्रकारके बलोंका संग्रह करना। यज्ञोंके द्वारा भगवान् सत्यवादी राजाको हम मन, वाणी और शरीरहषीकेशका पूजन करना और सदा पुण्यात्मा बने रहना। किसीकी भी क्रियाद्वारा छोड़ने में असमर्थ है। महाराज ! प्रजाको जिस वस्तुको इच्छा हो, वह सब उन्हें प्रतिदिन जब आप ही नहीं रहेंगे, तब स्त्री, धन, भोग और जीवन देते रहना। बेटा ! तुम प्रजाको सुख पहुँचाओ, प्रजाका लेकर हम क्या करेंगे। अतः राजेन्द्र ! अब हमें यहाँ पालन-पोषण करो। परायें धन और परायी स्त्रियोंके रहनेकी कोई आवश्यकता नहीं है। आपके साथ ही हम प्रति कभी दूषित विचार मनमें न लाना। वेद और भी चलेंगे।' शास्त्रोका निरन्तर चिन्तन करना और सदा अस्त्र-शस्त्रोंके प्रजाजनोंकी यह बात सुनकर राजा ययातिको बड़ा अभ्यासमें लगे रहना । हाथी और रथ हाँकनेका अभ्यास हर्ष हुआ। वे बोले-'आप सब लोग परम पुण्यात्मा भी बढ़ाते रहना।' है, मेरे साथ चलें। यों कहकर वे कामकन्याके साथ पुत्रको ऐसा आदेश देकर राजाने आशीर्वादके द्वारा रथपर सवार हुए। वह रथ चन्द्रमण्डलके समान जान उसे प्रसन्न किया और अपने हाथसे राजसिंहासनपर पड़ता था। सेवकगण हाथमें चैवर और व्यजन लेकर बिठाया। फिर अपनी वृद्धावस्था ले पुत्रको यौवन महाराजको हवा कर रहे थे। राजाके मनमें किसी समर्पित करके महाराजने समस्त प्रजाओंको बुलाया और प्रकारकी पीड़ा नहीं थी। उनके राज्यमें ब्राह्मण, क्षत्रिय, संपन्यु० ११
SR No.034102
Book TitleSankshipta Padma Puran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUnknown
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages1001
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size73 MB
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