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________________ २९२ · अर्चयस्व हषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् • प्रतीत होता है, वही स्त्रियोंके साथ सम्भोग करनेमें भी है। * जवानीके बाद जब वृद्धावस्था मनुष्यको दबा लेती है, तब असमर्थ होनेके कारण उसे पत्नी पुत्र आदि बन्धु बान्धव तथा दुराचारी भृत्य भी अपमानित कर बैठते हैं। बुढ़ापेसे आक्रान्त होनेपर मनुष्य धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष – इनमेंसे किसीका भी साधन नहीं कर सकता; इसलिये युवावस्थामें ही धर्मका आचरण कर लेना चाहिये।। | प्रारब्ध कर्मका क्षय होनेपर जो जीवोंका भिन्न-भिन्न देहोंसे वियोग होता है, उसीको मरण कहा गया 弯 वास्तवमें जीवका नाश नहीं होता। मृत्युके समय जब शरीरके मर्मस्थानोंका उच्छेद होने लगता है और जीवपर महान् मोह छा जाता है, उस समय उसको जो दुःख होता है, उसकी कहीं भी तुलना नहीं है। वह अत्यन्त दुःखी होकर 'हाय बाप! हाय मैया! हा प्रिये !' आदिकी पुकार मचाता हुआ बारम्बार विलाप करता है। जैसे साँप मेढकको निगल जाता है, उसी प्रकार वह सारे संसारको निगलनेवाली मृत्युका ग्रास बना हुआ है भाई बन्धुओंसे उसका साथ छूट जाता है; प्रियजन उसे घेरकर बैठे रहते हैं। वह गरम-गरम लम्बी साँसें खींचता है, जिससे उसका मुँह सूख जाता है। रह-रहकर उसे मूर्च्छा आ जाती है। बेहोशीकी हालतमें वह जोर-जोरसे इधर उधर हाथ-पैर पटकने लगता है। अपने काबू में नहीं रहता। लाज छूट जाती है और वह मल- -मूत्रमें सना पड़ा रहता है। उसके कण्ठ, ओठ और तालु सूख जाते हैं। वह बार-बार पानी माँगता है। कभी धनके विषयमें ******* * कृमिभिः पीड्यमानस्य कुष्ठिनः पामरस्य च। कण्डूयनाभितापेन यत्सुखं स्त्रीषु तद्विदुः ॥ [ संक्षिप्त पद्मपुराण चिन्ता करने लगता है— 'हाय! मेरे मरनेके बाद यह किसके हाथ लगेगा ?' यमदूत उसे कालपाशमें बाँधकर घसीट ले जाते हैं। उसके कण्ठमें घरघर आवाज होने लगती है; दूतोंके देखते-देखते उसकी मृत्यु होती है। जीव एक देहसे दूसरी देहमें जाता है। सभी जीव सबेरे मल-मूत्रकी हाजतका कष्ट भोगते हैं; मध्याह्नकालमें उन्हें भूख-प्यास सताती है और रात्रिमें वे काम-वासना तथा नींदके कारण क्लेश उठाते हैं [ इस प्रकार संसारका सारा जीवन ही कष्टमय है] । पहले तो धनको पैदा करनेमें कष्ट होता है, फिर पैदा किये हुए धनकी रखवालीमें क्लेश उठाना पड़ता है; इसके बाद यदि कहीं वह नष्ट हो जाय तो दुःख और खर्च हो जाय तो भी दुःख होता है। भला, धनमें सुख है ही कहाँ जैसे देहधारी प्राणियोंको सदा मृत्युसे भय होता है; उसी प्रकार धनवानोंको चोर, पानी, आग, कुटुम्बियों तथा राजासे भी हमेशा डर बना रहता है। जैसे मांसको आकाशमें पक्षी, पृथ्वीपर हिंसक जीव और जलमें मत्स्य आदि जन्तु भक्षण करते हैं, उसी प्रकार सर्वत्र धनवान् पुरुषको लोग नोंचते-खसोटते रहते हैं। सम्पत्तिमें धन सबको मोहित करता - उन्मत्त बना देता है, विपत्तिमें सन्ताप पहुँचाता है और उपार्जनके समय दुःखका अनुभव कराता है; फिर धनको कैसे सुखदायक कहा जाय। हेमन्त और शिशिरमें जाड़ेका कष्ट रहता है। गर्मी में दुस्सह तापसे संतप्त होना पड़ता है और वर्षाकालमें अतिवृष्टि तथा अल्पवृष्टिसे दुःख होता है; इस प्रकार विचार करनेपर कालमें भी सुख कहाँ है। + धर्ममर्थं च कामं च मोक्षं न जरया पुनः शक्तः साधयितुं तस्माद् युवा धर्म समाचरेत् ॥ + अर्थस्योपार्जन दुःखं दुःखमर्जितरक्षणे नाशे दुःखं व्यये दुःखमर्थस्यैव कुतः सुखम् ॥ चौरभ्यः सलिलेभ्योऽग्नेः स्वजनात् पार्थिवादपि भयमर्थवतां नित्य मृत्योर्देहभृतामिव ॥ खे यथा पक्षिभिमस भुज्यते श्वापदैर्भुवि। जले च भक्ष्यते मत्स्यैस्तथा सर्वत्र वित्तवान् ॥ विमोहयन्ति सम्पत्सु तापयन्ति विपत्सु च वेदयन्त्यर्जने दुःखं कथमर्थाः सुखावहाः ॥ (६६ / ११२) (६६ / ११७) **** (६६ । १४८ - १५१)
SR No.034102
Book TitleSankshipta Padma Puran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUnknown
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages1001
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size73 MB
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