________________
भूमिखण्ड ]
• सुकर्माद्वारा ययाति और मातलिके संवादका उल्लेख .
२९१
ज्ञानरूप निर्मल जलसे माँजने-धोनेपर पुरुषके अविद्या जाता है।* बाल्यकालमें इन्द्रियोंकी वृत्तियाँ पूर्णतयाँ तथा रागरूपी मल-मूत्रका लेप नष्ट होता है। इस प्रकार व्यक्त नहीं होती; इसलिये बालक महान्-से-महान् इस शरीरको स्वभावतः अपवित्र माना गया है। केलेके दुःखको सहन करता है, किन्तु इच्छा होते हुए भी न तो वृक्षकी भांति यह सर्वथा सारहीन है; अध्यात्म-ज्ञान ही उसे कह सकता है और न उसका कोई प्रतिकार ही कर इसका सार है। देहके दोषको जानकर जिसे इससे वैराग्य पाता है। शैशवकालीन रोगसे उसको भारी कष्ट भोगना हो जाता है, वह विद्वान् संसार-सागरसे पार हो जाता है। पड़ता है। भूख-प्यासकी पीड़ासे उसके सारे शरीरमें दर्द इस प्रकार महान् कष्टदायक जन्मकालीन दुःखका वर्णन होता है। बालक मोहवश मल-मूत्रको भी खानेके लिये किया गया।
मुंहमें डाल लेता है । कुमारावस्थामें कान बिंधानेसे कष्ट गर्भमें रहते समय जीवको जो विवेक-बुद्धि प्राप्त होता है। समय-समयपर उसे माता-पिताकी मार भी होती है, वह उसके अज्ञान-दोषसे या नाना प्रकारके सहनी पड़ती है। अक्षर लिखने-पढ़नेके समय गुरुका कोकी प्रेरणासे जन्म लेनेके पश्चात् नष्ट हो जाती है। शासन दुःखद जान पड़ता है। योनि-यन्त्रसे पीड़ित होनेपर जब वह दुःखसे मूर्च्छित हो जवानीमें भी इन्द्रियोंकी वृत्तियाँ कामना और रागकी जाता है और बाहर निकलकर बाहरी हवाके सम्पर्कमें प्रेरणासे इधर-उधर विषयोंमें भटकती हैं; फिर मनुष्य आता है, उस समय उसके चित्तपर महान् मोह छा जाता रोगोंसे आक्रान्त हो जाता है। अतः युवावस्थामें भी सुख है। मोहग्रस्त होनेपर उसकी स्मरणशक्तिका भी शीघ्र ही कहाँ है। युवकको ईर्ष्या और मोहके कारण महान् नाश हो जाता है; स्मृति नष्ट होनेसे पूर्वकोंकी वासनाके दुःखका सामना करना पड़ता है। कामाग्निसे संतप्त रहनेके कारण उस जन्ममें भी ममता और आसक्ति बढ़ जाती है। कारण उसे रातभर नींद नहीं आती। दिनमें भी फिर संसारमें आसक्त होकर मूढ जीव न आत्माको जान अर्थोपार्जनकी चिन्तासे सुख कहाँ मिलता है । कीड़ोंसे पाता है न परमात्माको, अपितु निषिद्ध कर्ममें प्रवृत्त हो पीड़ित कोढ़ी मनुष्यको अपनी कोढ़ खुजलानेमें जो सुख
* चित्तं शोधय यत्नेन किमन्यैर्वाह्यशोधनैः । भावतः शुचिः शुद्धात्मा स्वर्ग मोक्षं च विन्दति ।।
शानामलाम्भसा पुंसः सद्वैराग्यमृदा पुनः । अविद्यारागविण्मूत्रलेपो नश्येद्विशोधनैः ।। एवमेतच्छरीरं हि निसर्गादशुचि विदुः । अध्यात्मसारनिस्सारं कदलीसारसंनिभम् । ज्ञात्वैव देहदोषं यः प्राज्ञः स शिथिलो भवेत् । सोऽतिकामति संसार ........... एवमेत पहाकष्टं जन्मदुःख प्रकीर्तितम् । पुंसामज्ञानदोषेण नानाकर्मवशेन च। गर्भस्थस्य मतिर्याऽऽसीत् संजातस्य प्रणश्यति । सम्मूर्छितस्य दुःखेन योनियन्त्रप्रपीडनात् ।। बाह्येन वायुना तस्य मोहसङ्गेन देहिनाम् । स्पृष्टमात्रेण घोरेण ................... ||
.............. महामोहः प्रजायते । सम्मूतस्य स्मृतिभ्रंशः शीघ्र संजायते पुनः॥ स्मृतिभ्रंशात्तस्य पूर्वकर्मज्ञानसमुदया। रतिः संजायते पूर्णा जन्तोस्तत्रैव जन्मनि ।। रक्तो मूढा लोकोऽयमकायें सम्प्रवर्तते । न चाहमानं विजानाति न परं न च दैवतम्।
(६६।९०-९९) * अव्यक्तेन्द्रियवृत्तित्वाद्वाल्ये दुःखं महत्पुनः । इच्छापि न शक्नोति वक्तुं कर्तुं च संस्कृतम्। भुङ्क्ते तेन महददुःख बाल्येन व्याधिनान्यथा । बाल्यरोगैच विविधैः पीडा ............ ॥ तृड्बुभुक्षापरीताङ्गः क्वचिदच्छति तिष्ठति । विष्णूत्रभक्षणाय च मोहावाल: समाचरेत् ॥ कौमारः कर्णवेधेन मात्रापित्रोश ताडनम् । अक्षराध्ययनाच दुःखं स्याद्गुरुशासनम् ॥ अन्यत्रेन्द्रियवृत्तिच कामरागप्रयोजनात्। रोगावृत्तस्य सततं कुतः सौख्य च यौवने ॥ ईय॑या सुमहदुःख मोहाददुःखं सुजायते । तत्र स्यात्कुपितस्यैव रागे दुःखाय केवलम्॥ रात्रौ न कुरुते निद्रां कामाग्निपरिखेदितः । दिवा वापि कुतः सौरख्यमथोपार्जनचिन्तया ॥
(६६।१०४-११०