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________________ भूमिखण्ड] • सुकर्माद्वारा ययाति और मातलिके संवादका उल्लेख . यही दशा कुटुम्बकी भी है। पहले तो विवाहमें लाभ करना है कि मेरे महलमें सदा शहनाई बजती है। विस्तारपूर्वक व्यय होनेपर दुःख होता है; फिर पत्नी जब समस्त आभूषण भारमात्र हैं, सब प्रकारके अङ्गराग गर्भ धारण करती है, तब उसे उसका भार ढोने में कष्टका मैलके समान हैं, सारे गीत प्रलापमात्र है और नृत्य अनुभव होता है। प्रसवकालमें अत्यन्त पीड़ा भोगनी पागलोकी-सी चेष्टा है। इस प्रकार विचार करके देखा पड़ती है तथा फिर सन्तान होनेपर उसके मल-मूत्र उठाने जाय, तो राजोचित भोगोंसे भी क्या सुख मिलता है। आदिमें क्लेश होता है। इसके सिवा हाय ! मेरी स्त्री भाग राजाओंका यदि किसीके साथ युद्ध छिड़ जाय तो एक गयी, मेरी पत्नीकी सन्तान अभी बहुत छोटी है, वह दूसरेको जीतनेकी इच्छासे वे सदा चिन्तामग्न रहते हैं। बेचारी क्या कर सकेगी? कन्याके विवाहका समय आ नहुष आदि बड़े-बड़े सम्राट भी राज्य-लक्ष्मीके मदसे रहा है, उसके लिये कैसा वर मिलेगा?-इत्यादि उन्मत्त होनेके कारण स्वर्गमें जाकर भी वहाँसे भ्रष्ट हो चिन्ताओंके भारसे दबे हुए कुटुम्बीजनोंको कैसे सुख गये। भला, लक्ष्मीसे किसको सुख मिलता है।* मिल सकता है। स्वर्गमें भी सुख कहाँ है। देवताओंमें भी एक ___ राज्यमें भी सुख कहाँ है। सदा सन्धि-विग्रहकी देवताकी सम्पत्ति दूसरेकी अपेक्षा बढ़ी-चढ़ी तो होती ही चिन्ता लगी रहती है। जहाँ पुत्रसे भी भय प्राप्त होता है, है, वे अपनेसे ऊपरकी श्रेणीवालोंके बढ़े हुए वैभवको वहाँ सुख कैसा । एक द्रव्यकी अभिलाषा रखनेके कारण देख-देखकर जलते हैं। मनुष्य तो स्वर्गमें जाकर अपना आपसमें लड़नेवाले कुतोंकी तरह प्रायः सभी मूल गवाते हुए ही पुण्यफलका भी उपभोग करते हैं। देहधारियोंको अपने सजातियोंसे भय बना रहता है। जैसे जड़ कट जानेपर वृक्ष विवश होकर धरतीपर गिर कोई भी राजा राज्य छोड़कर वनमें प्रवेश किये बिना इस जाता है, उसी प्रकार पुण्य क्षीण होनेपर मनुष्य भी भूतलपर विख्यात न हो सका। जो सारे सुखोंका स्वर्गसे नीचे आ जाते हैं। इस प्रकार विचारसे परित्याग कर देता है, वही निर्भय होता है। राजन्! देवताओंके स्वर्गलोकमें भी सुख नहीं जान पड़ता। पहननेके लिये दो वस्त्र हों और भोजनके लिये सेर भर स्वर्गसे लौटनेपर देहधारियोंको मन, वाणी और शरीरसे अन्न-इतनेमें ही सुख है। मान-सम्मान, छत्र-चैवर किये हुए नाना प्रकारके भयंकर पाप भोगने पड़ते हैं। और राज्यसिंहासन तो केवल दुःख देनेवाले हैं। समस्त उस समय नरककी आगमें उन्हें बड़े भारी कष्ट और भूमण्डलका राजा ही क्यों न हो, एक खाटके नापको दुःखका सामना करना पड़ता है। जो जीव स्थावरभूमि ही उसके उपभोगमें आती है। जलसे भरे हजारों योनिमें पड़े हुए हैं, उन्हें भी सब प्रकारके दुःख प्राप्त होते घड़ोंद्वारा अभिषेक कराना केश और श्रमको ही बढ़ाना है। कभी उन्हें कुल्हाड़ीके तीव्र प्रहारसे काटा जाता है है। [सान तो एक घड़ेसे भी हो सकता है। प्रातःकाल तो कभी उनकी छाल काटी जाती है और कभी उनकी पुरवासियोंके साथ शहनाईका मधुर शब्द सुनना अपने डालियों, पत्तों और फलोंको भी गिराया जाता है; कभी राजत्वका अभिमानमात्र है। केवल यह कहकर सन्तोष प्रचण्ड आँधीसे वे अपने-आप उखड़कर गिर जाते हैं तो *एवं वस्त्रयुगं राजन् प्रस्थमात्र तु भोजनम् । मानं छत्रासनं चैव सुखदुःखाय केवलम्॥ सार्वभौमोऽपि भवति खट्वामात्रपरिग्रहः । उदकुम्भसहसेभ्यः केशायासप्रविस्तरः॥ प्रत्यूषे तूर्यनिमोपः सम पुरनिवासिभिः । राज्येऽभिमानमात्रं हि ममेदं वाद्यते गृहे ।। सर्वमाभरणं भारः सर्वमालेपनं मलम् । सर्व संलपितं गीतं नृतमुन्मत्तचेष्टितम्॥ इत्येवं राज्यसम्भोगैः कुतः सौख्यं विचारतः । नृपाणां विद्महे चिन्ता वान्योन्यविजिगीषया । प्रायेण श्रीमदालेपानहुषाद्या महानृपाः । स्वर्ग प्राप्ता निपतिताः क्व श्रिया विन्दते सुखम्॥ (६६।१७५-१८०)
SR No.034102
Book TitleSankshipta Padma Puran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUnknown
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages1001
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size73 MB
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