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________________ उत्तरखण्ड ] . जयन्ती संज्ञावाली जन्माष्टमीके व्रत तथा विविध प्रकारके दान आदिकी महिमा . ६३३ पुरुषोंके द्वारा भक्तिपूर्वक नृत्य, गीत और वाद्य कराये। गया है; ये क्रमशः दुहने, बोने तथा अभ्यास करनेसे इस प्रकार अपने वैभवके अनुसार सब विधान पूर्ण नरकसे उद्धार कर देती हैं।* करके गुरुका पूजन करे, तत्पश्चात् पूजाकी समाप्ति करे। वस्त्रदान करनेवाले पुरुष परलोकके मार्गपर वस्त्रोंसे महादेवजी कहते हैं-जब इन्द्रके सौ यज्ञ पूर्ण आच्छादित होकर यात्रा करते हैं और जिन्होंने वस्त्रदान हो गये और उत्तम दक्षिणा देकर यज्ञका कार्य समाप्त कर नहीं किया है, उन्हें नंगे ही जाना पड़ता है। अन्नदान दिया गया, उस समय देवराजके मनमें कुछ पूछनेका करनेवाले लोग तृप्त होकर जाते हैं; जो अन्नदान नहीं संकल्प हुआ; अतएव उन्होंने अपने गुरु बृहस्पतिजीसे करते, उन्हें भूखे ही यात्रा करनी पड़ती है। नरकके भयसे इस प्रकार प्रश्न किया। डरे हुए सभी पितर इस बातकी अभिलाषा करते हैं कि इन्द्र बोले-भगवन् ! किस दानसे सब और हमारे पुत्रों से जो कोई गया जायगा, वह हमें तारनेवाल सुखकी वृद्धि होती है ? जो अक्षय तथा महान् अर्थका होगा। बहुत-से पुत्रोंकी इच्छा करनी चाहिये; क्योंकि साधक हो, उसका वर्णन कीजिये। उनमेंसे एक भी तो गया जायगा अथवा नील वृषका बहस्पतिजीने कहा-इन्द्र ! सोना, वस्त्र, गौ उत्सर्ग करेगा। जो रंगसे लाल हो, जिसकी पूंछके तथा भूमि-इनका दान करनेवाला पुरुष सब पापोंसे अग्रभागमें कुछ पीलापन लिये सफेदी हो और खुर तथा मुक्त हो जाता है। जो भूमिका दान करता है, उसके द्वारा सींगोंका विशुद्ध श्वेत वर्ण हो, वह 'नील वृष' कहलाता सोने, चाँदी, वस्त्र, मणि एवं रनका भी दान हो जाता है। है। पाण्डु रंगको पूँछवाला नील वृष जो जल उछालता जो फालसे जोती हो, जिसमें बीज बो दिया गया हो तथा है, उससे साठ हजार वर्षातक पितर तृप्त रहते हैं। जिसके जहाँ खेती लहरा रही हो, ऐसी भूमिका दान करके मनुष्य सींगमें नदीके किनारेको उखाड़ी हुई मिट्टी लगी होती है, तबतक स्वर्गलोकमें प्रतिष्ठित होता है, जबतक सूर्यका उसके दानसे पितरगण परम प्रकाशमय चन्द्रलोकका प्रकाश बना रहता है। जीविकाके कष्टसे मनुष्य जो कुछ सुख भोगते हैं। भी पाप करता है, वह गोचर्ममात्र भूमिके दानसे छूट यह पृथ्वी पूर्वकालमें राजा दिलीप, नृग, नहुष तथा जाता है। दस हाथका एक दण्ड होता है, तौस दण्डका अन्यान्य नरेशोंके अधीन थी और पुनः अन्यान्य एक वर्तन होता है और दस वर्तनका एक गोचर्म होता राजाओके अधिकारमे जाती रहेगी। सगर आदि बहुत-से है; यही ब्रह्म-गोचर्मकी भी परिभाषा है। छोटे बछड़ोंको राजा इस पृथ्वीका दान कर चुके है। यह जब जिसके जन्म देनेवाली एक हजार गौएँ जहाँ साँड़ोंके साथ खड़ी अधिकारमें रहती है, तब उसीको इसके दानका फल हो सकें, उतनी भूमिको एक गोचर्म माना गया है। मिलता है। जो अपनी या दूसरेकी दी हुई पृथ्वीको हर गुणवान, तपस्वी तथा जितेन्द्रिय ब्राह्मणको दान देना लेता है; वह विष्ठाका कीड़ा होकर पितरोंसहित नरकमें चाहिये। उस दानका अक्षय फल तबतक मिलता रहता पकाया जाता है। भूमिदान करनेवालेसे बढ़कर पुण्यवान् है, जबतक यह समुद्रपर्यन्त पृथ्वी कायम रहती है। तथा भूमि हर लेनेवालेसे बढ़कर पापी दूसरा कोई नहीं इन्द्र ! जैसे तेलकी बूँद कहीं गिरनेपर शीघ्र ही फैल है। जबतक महाप्रलय नहीं हो जाता, तबतक भूमिदाता जाती है, उसी प्रकार खेतीके साथ किया हुआ भूमिदान ऊर्ध्वलोकमें और भूमिहर्ता नरकमें रहता है। सुवर्ण विशेष विस्तारको प्राप्त होता है। गौ, भूमि और अग्निकी प्रथम संतान है, पृथ्वी विष्णुके अंशसे प्रकट हुई विद्या-इन तीन वस्तुओंके दानको अतिदान बताया है तथा गौएँ सूर्यको कन्याएँ हैं। इसलिये जो सुवर्ण, गौ •ौण्याहुरतिदानानि गावः पृथ्यो सरस्वती : नरकादुद्धरत्येते अपवापनदोहनात् ।। (३३ ॥ १८) * लोहितो यस्तु वणेन पुच्छाग्ने यस्तु पाण्डुरः । श्वेतः खुरविषाणाभ्यां स नोलो वृष उच्यते ॥ (३२ ॥ २२-२३)।
SR No.034102
Book TitleSankshipta Padma Puran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUnknown
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages1001
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size73 MB
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