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________________ ५१० . अर्चयस्व हृषीकेशं यदीच्छसि पर पदम् . [ संक्षिप्त पद्मपुराण शत्रुपक्षके सभी प्रधान वीरोंको रथपर बिठाकर अपने हैं, मुनीश्वरोंके साथ धर्मका विचार कर रहे हैं और यहाँ नगरमें ले गये। वहाँ जाकर वे राज-सभामें बैठे और मैं सुरथके द्वारा गाढ बन्धनमें बांधा गया हूँ। महापुरुष ! बँधे हुए हनुमानजीसे बोले- पवनकुमार ! अब तुम देव ! शीघ्र आकर मुझे छुटकारा दीजिये। प्रभो ! भक्तोंकी रक्षा करनेवाले परमदयालु श्रीरघुनाथजीका सम्पूर्ण देवेश्वर भी आपके चरण-कमलोंकी अर्चना करते स्मरण करो, जिससे सन्तुष्ट होकर वे तुम्हें तत्काल इस हैं। यदि इतने स्मरणके बाद भी आप हमलोगोको इस बन्धनसे मुक्त कर दें।' उनका कथन सुनकर हनुमानजीने बन्धनसे मुक्त नहीं करेंगे तो संसार खुश हो-होकर अपनेसहित समस्त वीरोंको बँधा देख रघुकुलमें आपकी हंसी उड़ायेगा; इसलिये अब आप विलम्ब न अवतीर्ण, कमलके समान नेत्रोंवाले, परमदयालु कीजिये, हमें शीघ्र छुड़ाइये।'* | सीतापति श्रीरामचन्द्रजीका सम्पूर्ण इन्द्रियोंसे स्मरण जगत्के स्वामी कृपानिधान श्रीरघुवीरजीने किया। वे मन-ही-मन कहने लगे-'हा नाथ ! हा हनुमान्जीकी प्रार्थना सुनी और अपने भक्तको बन्धनसे पुरुषोत्तम !! हा दयालु सीतापते !!! [आप कहाँ है? मुक्त करनेके लिये वे तीव्रगामी पुष्पक विमानपर चढ़कर मेरी दशापर दृष्टिपात करें] प्रभो ! आपका मुख तुरंत चल दिये। हनुमान्जीने देखा, भगवान् आ गये। स्वभावसे ही शोभासम्पन्न है, उसपर भी सुन्दर उनके पीछे लक्ष्मण और भरत हैं तथा साथमें मुनियोंका कुण्डलोंके कारण तो उसकी सुषमा और भी बढ़ गयी समुदाय शोभा पा रहा है। अपने स्वामीको आया देख है। आप भक्तोंकी पीड़ाका नाश करनेवाले हैं। मनोहर हनुमानजीने सुरथसे कहा-'राजन् ! देखो, भगवान् रूप धारण करते हैं। दयामय ! मुझे इस बन्धनसे शीघ्र दया करके अपने भक्तको छुड़ानेके लिये आ गये। मुक्त कीजिये; देर न लगाइये। आपने गजराज आदि पूर्वकालमें जिस प्रकार इन्होंने स्मरण करनेमात्रसे भक्तोंको संकटसे बचाया है, दानव-वंशरूपी अनिकी पहुँचकर अनेक भक्तोंको संकटसे मुक्त किया है, उसी ज्यालामें जलते हुए देवताओंकी रक्षा की है तथा प्रकार आज बन्धनमें पड़े हुए मुझको भी छुड़ानेके लिये दानवोंको मारकर उनकी पत्नियोंके मस्तककी केश- मेरे प्रभु आ पहुंचे। राशिको भी बन्धनसे मुक्त किया है [वे विधवा होनेके श्रीरामचन्द्रजी एक ही क्षणमें यहाँ आ पहुँचे, यह कारण कभी केश नहीं बाँधती]; करुणानिधे ! अब मेरी देखकर राजा सुरथ प्रेममग्न हो गये और उन्होंने भी सुध लीजिये। नाथ ! बड़े-बड़े सम्राट् भी आपके भगवान्को सैकड़ो बार प्रणाम किया। श्रीरामने भी चरणोंका पूजन करते हैं, इस समय आप यज्ञकर्ममें लगे चतुर्भुज रूप धारणकर अपने भक्त सुरथको भुजाओंमें * इत्युक्तमाकर्ण्य समीरजस्तदा सुबद्धमात्मानमवेक्ष्य वीरान्। समूचिईताशत्रुशराविघातपीडायुतान् बन्धनमुक्तयेऽस्मरत् ॥ श्रीरामचन्द्रं रघुवंशजातं सीतापति पङ्कजपत्रनेत्रम्। स्वमुक्तये बन्धनतः कृपालु सस्मार सर्वैः करणैर्विशोकैः । हनुमानुवाच हा नाथ हा नरवरोतम हा दयालो सौतापते रुचिरकुण्डलशोभिवका । भक्तार्तिदाहक मनोहररूपधारिन् मां बन्धनात् सपदि मोचय मा विलम्बम् ॥ संमोचितास्त भवता गजपङवाचा देवाच दानवकलानिसदह्यमानाः । तत्सुन्दरीशिरसि संस्थितकेशबन्धसंमोचितासि करुणालय मां सरस्व ॥ त्वं यागकर्मनिरतोऽसि मुनीश्वरेन्द्रधर्म विचारयसि भूमिपतोडापाद। अत्राहमद्य सुरथेन विगाढपाशबद्धोऽस्मि मोचय महापुरुषाशु देव ॥ नो मोचयस्यथ यदि स्मरणातिरेकात्वं सर्वदेववरपूजितपादपद्य। लोको भवत्तमिदमुल्लसितो हसिष्यत्तस्माद् विलम्बमिह मा चर मोचयाशु॥ (५३ । १२-१७)
SR No.034102
Book TitleSankshipta Padma Puran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUnknown
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages1001
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size73 MB
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