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________________ सृष्टिखण्ड] • पार्वतीका जन्म, मदन-दहन, पार्वतीका तप तथा उनका शिवजीके साथ विवाह - १४३ नमस्कार है। कालस्वरूप आपको नमस्कार है। कहा-'बेटी! 'उ' 'मा'-ऐसा न करो। तुम अभी कलसंख्यरूप आपको नमस्कार है तथा काल और कल चपल बालिका हो। तुम्हारा शरीर तपस्याका कष्ट सहन दोनोंसे अतीत आप परमेश्वरको नमस्कार है। आप करनेमें समर्थ नहीं है। बाले ! जो बात होनेवाली होती चराचर प्राणियोंके आचारका विचार करनेवालोंमें सबसे है, वह होकर ही रहती है; इसलिये तुम्हें तपस्या करनेकी बड़े आचार्य हैं। प्राणियोंकी सृष्टि आपके ही संकल्पसे कोई आवश्यकता नहीं है। अब घरको ही चलूँगा और हुई है। आपके ललाटमें चन्द्रमा शोभा पाते हैं। मैं अपने वहीं इस कार्यकी सिद्धिके लिये कोई उपाय सोचूंगा।' प्रियतमकी प्राप्तिके लिये सहसा आप महेश्वरकी शरणमें पिताके ऐसा कहनेपर भी जब पार्वती घर जानेको तैयार आयी हूँ। भगवन् ! मेरी कामनाको पूर्ण करनेवाले और नहीं हुई, तब हिमवान्ने मन-ही-मन अपनी पुत्रीके दृढ़ यशको बढ़ानेवाले मेरे पतिको मुझे दे दीजिये। मैं उनके निश्चयकी प्रशंसा की। इसी समय आकाशमें दिव्य वाणी बिना जीवित नहीं रह सकती। पुरुषेश्वर ! प्रियाके लिये प्रकट हुई, जो तीनों लोकोंमें सुनायी पड़ी। वह इस प्रियतम ही नित्य सेव्य है, उससे बढ़कर संसारमें दूसरा प्रकार थी-'गिरिराज ! तुमने 'उ' 'मा' कहकर अपनी कौन है। आप सबके प्रभु, प्रभावशाली तथा प्रिय पुत्रीको तपस्या करनेसे रोका है; इसलिये संसारमें इसका वस्तुओंकी उत्पत्तिके कारण हैं। आप ही इस भुवनके नाम उमा होगा। यह मूर्तिमती सिद्धि है। अपनी स्वामी और रक्षक हैं। आप परम दयालु और भक्तोंका अभिलषित वस्तुको अवश्य प्राप्त करेगी।' यह भय दूर करनेवाले हैं। आकाशवाणी सुनकर हिमवान्ने पुत्रीको तप करनेकी पुलस्त्यजी कहते हैं-कामदेवकी पत्नी रतिके आज्ञा दे दी और स्वयं अपने भवनको चले गये। इस प्रकार स्तुति करनेपर मस्तकपर चन्द्रमाका मुकुट पार्वती अपनी दोनों सखियोंके साथ हिमालयके धारण करनेवाले भगवान् शङ्कर उसकी ओर देखकर उस प्रदेशमें गयी, जहाँ देवताओंका भी पहुँचना कठिन मधुर वाणीमें बोले-'सुन्दरी ! समय आनेपर यह था। वहाँका शिखर परम पवित्र और नाना प्रकारकी कामदेव शीघ्र ही उत्पन्न होगा। संसारमें इसकी अनङ्गके धातुओंसे विभूषित था। सब ओर दिव्य पुष्प और नामसे प्रसिद्धि होगी। भगवान् शिवके ऐसा कहनेपर लताएँ फैली थीं, वृक्षोपर भ्रमर गुंजार कर रहे थे। वहाँ कामवल्लभा रति उनके चरणोंमें मस्तक झुकाकर पार्वतीने अपने वस्त्र और आभूषण उतारकर दिव्य हिमालयके दूसरे उपवनमें चली गयी। वल्कल धारण कर लिये । कटिमें कुशोंकी मेखला पहन उधर नारदजीके कथनानुसार हिमवान् अपनी ली। वह प्रतिदिन तीन बार स्नान करती और गुलाबके कन्याको वस्त्राभूषणोंसे विभूषित करके उसकी दो फूल चबाकर रह जाती थी। इस प्रकार उसने सौ सखियोंके साथ भगवान् शङ्करके समीप ले आ रहे थे। वर्षातक तपस्या की। तत्पश्चात् सौ वर्षोंतक हिमवान्मार्गमें रतिके मुखसे मदन-दहनका समाचार सुनकर कुमारी प्रतिदिन एक पत्ता खाकर रही। तदनन्तर पुनः सौ उनके मनमें कुछ भय हुआ। उन्होंने कन्याको लेकर वर्षांतक उसने आहारका सर्वथा परित्याग कर दिया। अपनी पुरीमें लौट जानेका विचार किया। यह देख इस तरह वह तपस्याकी निधि बन गयी। उसके तपकी संकोचशीला पार्वतीने अपनी सखियोंके मुखसे पिताको आँचसे समस्त प्राणी उद्विग्न हो उठे। तब इन्द्रने कहलाया-'तपस्यासे अभीष्ट वस्तुकी प्राप्ति होती है। सप्तर्षियोंका स्मरण किया। वे सब बड़ी प्रसत्रताके साथ तप करनेवालेके लिये कुछ भी दुर्लभ नहीं है। संसारमें एक ही समय वहाँ उपस्थित हुए। इन्द्रने उनका स्वागततपस्या-जैसे साधनके रहते लोग व्यर्थ ही दुर्भाग्यका भार सत्कार किया। इसके बाद उन्होंने अपने बुलाये जानेका ढोते हैं। अतः अपनी अभीष्ट वस्तुको प्राप्त करनेकी प्रयोजन पूछा। तब इन्द्रने कहा- 'महात्माओ! इच्छासे मैं तपस्या ही करूँगी।' यह सुनकर हिमवान्ने आपलोगोंके आवाहनका प्रयोजन सुनिये। हिमालयपर
SR No.034102
Book TitleSankshipta Padma Puran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUnknown
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages1001
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size73 MB
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