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________________ ५३० अर्थयस्व हृषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् • मारे गये, कोई भी जीवित न बचा। इस प्रकार लवने शत्रु समुदायको परास्त करके युद्धमें विजय पायी तथा दूसरे योद्धाओंके आने की आशङ्कासे वे खड़े होकर प्रतीक्षा करने लगे। कोई-कोई योद्धा भाग्यवश उस युद्ध से बच गये। उन्होंने ही शत्रुघ्रके पास जाकर रण भूमिका सारा समाचार सुनाया। बालकके हाथसे कालजित्की मृत्यु तथा उसके विचित्र रण कौशलका वृत्तान्त सुनकर शत्रुघ्रको बड़ा विस्मय हुआ। वे बोले- 'वीरो ! तुमलोग छल तो नहीं कर रहे हो ? तुम्हारा चित्त विकल तो नहीं है ? कालजित्का मरण कैसे हुआ ? वे तो यमराजके लिये भी दुर्धर्ष थे? उन्हें एक बालक कैसे परास्त कर सकता है ?" शत्रुघ्रकी बात सुनकर खूनसे लथपथ हुए उन योद्धाओंने कहा'राजन् ! हम छल या खेल नहीं कर रहे हैं; आप विश्वास कीजिये । कालजितकी मृत्यु सत्य है और वह लवके हाथसे ही हुई है। उसका युद्धकौशल अनुपम है। उस बालकने सारी सेनाको मथ डाला। इसके बाद अब जो कुछ करना हो, खूब सोच-विचारकर करें। जिन्हें युद्धके लिये भेजना हो, वे सभी श्रेष्ठ पुरुष होने चाहिये।' उन वीरोंका कथन सुनकर शत्रुघ्नने श्रेष्ठ बुद्धिवाले मन्त्री सुमतिसे युद्धके विषय में पूछा- 'मन्त्रिवर! क्या तुम जानते हो कि किस बाल्कने मेरे अश्वका अपहरण किया है ? उसने मेरी सारी सेनाका, जो समुद्रके समान विशाल थी, विनाश कर डाला है।' सुमतिने कहा - स्वामिन्! यह मुनिश्रेष्ठ वाल्मीकिका महान् आश्रम है, क्षत्रियोंका यहाँ निवास नहीं है। सम्भव है इन्द्र हों और अमर्षमें आकर उन्होंने घोड़ेका अपहरण किया हो। अथवा भगवान् शङ्कर ही बालक-वेषमें आये हों अन्यथा दूसरा कौन ऐसा है, जो तुम्हारे अश्वका अपहरण कर सके। मेरा तो ऐसा विचार है कि अब तुम्हीं वीर योद्धाओं तथा सम्पूर्ण राजाओंसे घिरे हुए वहाँ जाओ और विशाल सेना भी अपने साथ ले लो। तुम शत्रुका उच्छेद करनेवाले हो, अतः वहाँ जाकर उस वीरको जीते-जी बाँध लो। मैं उसे ले जाकर कौतुक देखनेकी इच्छा रखनेवाले श्रीरघुनाथजीको दिखाऊँगा । [ संक्षिप्त पद्मपुराण ----------- मन्त्रीका यह वचन सुनकर शत्रुघ्नने सम्पूर्ण वीरोंको आज्ञा दी – 'तुमलोग भारी सेनाके साथ चलो, मैं भी पीछेसे आता हूँ।' आज्ञा पाकर सैनिकोंने कूच किया। वीरोंसे भरी हुई उस विशाल सेनाको आते देख ल सिंहके समान उठकर खड़े हो गये। उन्होंने समस्त योद्धाओंको मृगोंके समान तुच्छ समझा। वे सैनिक उन्हें चारों ओरसे घेरकर खड़े हो गये। उस समय उन्होंने घेरा डालनेवाले समस्त सैनिकोंको प्रज्वलित अग्रिकी भाँति भस्म करना आरम्भ किया। किन्हींको तलवारके घाट उतारा, किन्हींको बाणोंसे मार परलोक पहुँचाया तथा किन्हींको प्रास, कुन्त, पट्टिश और परिघ आदि शस्त्रोंका निशाना बनाया। इस प्रकार महात्मा लवने सभी घेरोंको तोड़ डाला। सातों घेरोंसे मुक्त होनेपर कुशके छोटे भाई लव शरद् ऋतु मेघोंके आवरणसे उन्मुक्त हुए चन्द्रमाकी भाँति शोभा पाने लगे। उनके बाणोंसे पीड़ित होकर अनेकों वीर धराशायी हो गये। सारी सेना भाग चली। यह देख वीरवर पुष्कल युद्धके लिये आगे बढ़े। उनके नेत्र क्रोधसे भरे थे और वे 'खड़ा रह, खड़ा रह कहकर लवको ललकार रहे थे। निकट आनेपर पुष्कलने लवसे कहा - ' -'वीर! मैं तुम्हें उत्तम घोड़ोंसे सुशोभित एक रथ प्रदान करता हूँ, उसपर बैठ जाओ। इस समय तुम पैदल हो ऐसी दशामें मैं तुम्हारे साथ युद्ध कैसे कर सकता हूँ इसलिये पहले रथपर बैठो, फिर तुम्हारे साथ लोहा लूँगा।' यह सुनकर लवने पुष्कलसे कहा- 'वीर! यदि मैं तुम्हारे दिये हुए रथपर बैठकर युद्ध करूंगा, तो मुझे पाप ही लगेगा और विजय मिलनेमें भी सन्देह रहेगा। हमलोग दान लेनेवाले ब्राह्मण नहीं हैं, अपितु स्वयं ही प्रतिदिन दान आदि शुभकर्म करनेवाले क्षत्रिय हैं [तुम मेरे पैदल होनेकी चिन्ता न करो]। मैं अभी क्रोधमें भरकर तुम्हारा रथ तोड़ डालता हूँ, फिर तुम भी पैदल ही हो जाओगे। उसके बाद युद्ध करना।' लवका यह धर्म और धैर्यसे युक्त वचन सुनकर पुष्कलका चित्त बहुत देरतक विस्मयमें पड़ा रहा। तत्पश्चात् उन्होंने धनुष चढ़ाया। उन्हें धनुष उठाते देख लवने कुपित होकर बाण
SR No.034102
Book TitleSankshipta Padma Puran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUnknown
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages1001
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size73 MB
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