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________________ . श्रीविष्णुकी महिमा-भक्तप्रवर पुण्डरीककी कथा . ७४१ ... .. AI R TERNATIONAL. ................ गदा शोभा पा रहे थे। तेजोमयी आकृति, कमलके जिनकी महिमाका तपस्यासे ही अनुमान हो सकता है, समान बड़े-बड़े नेत्र और चन्द्रमण्डलके समान उन परमात्माको नमस्कार है। भगवन् ! आपकी महिमा कान्तिमान् मुख। कमरमें करधनी, कानोंमें कुण्डल, वाणीका विषय नहीं है, उसे कहना असम्भव है। आप गलेमें हार, बाहुओंमें भुजबन्द, वक्षःस्थलमें श्रीवत्सका जाति आदिकी कल्पनासे दूर हैं, अतः सदा तत्त्वतः ध्यान चिह्न और श्याम शरीरपर पीतवस्त्र शोभा पा रहे थे। करनेके योग्य है। पुरुषोत्तम ! आप एक-अद्वितीय भगवान् कौस्तुभमणिसे विभूषित थे। वनमालासे उनका होते हुए भी भक्तोंपर कृपा करनेके लिये भेदरूपसे सारा अङ्ग व्याप्त था। मकराकृत कुण्डल जगमगा रहे मत्स्य-कूर्म आदि अवतार धारण करके दर्शन देते हैं। थे। दमकते हुए यज्ञोपवीत और नीचेतक लटकती हुई भीष्यजी कहते हैं-इस प्रकार जगत्के स्वामी मोतियोंकी मालासे उनकी शोभा और भी बढ़ गयी थी। वीरवर भगवान् पुरुषोत्तमकी स्तुति करके पुण्डरीक देव, सिद्ध, देवेन्द्र, गन्धर्व और मुनि चैवर तथा व्यजन उन्हींको निहारने लगे; क्योंकि चिरकालसे वे उनके आदिसे भगवान्की सेवा कर रहे थे। पापरहित दर्शनकी लालसा रखते थे। तब तीन पगोंसे त्रिलोकीको पुण्डरीकने स्वयं उन देवदेवेश्वर महात्मा जनार्दनको वहाँ नापनेवाले तथा नाभिसे कमल प्रकट करनेवाले भगवान् उपस्थित देख पहचान लिया और प्रसन्न चित्तसे हाथ विष्णुने महाभाग पुण्डरीकसे गम्भीर वाणीमें जोड़ प्रणाम करके स्तुति करना आरम्भ किया। कहा-'बेटा पुण्डरीक ! तुम्हारा कल्याण हो। मैं तुमपर पुण्डरीक बोले-सम्पूर्ण जगत्के एकमात्र नेत्र बहुत प्रसन्न हूँ। महामते ! तुम्हारे मनमें जो भी कामना आप भगवान् विष्णुको नमस्कार है। आप निरञ्जन हो, उसे वरके रूपमें माँगो। मैं अवश्य दूंगा।' (निर्मल), नित्य, निर्गुण एवं महात्मा हैं; आपको पुण्डरीक बोले-देवेश्वर ! कहाँ मैं अत्यन्त नमस्कार है। आप समस्त प्राणियोंके ईश्वर हैं भक्तोंका खोटी बुद्धिवाला मनुष्य और कहाँ मेरे परम भय एवं पीड़ा दूर करनेके लिये गोविन्द तथा गरुडध्वज- हितैषी आप। माधव ! जिसमें मेरा हित हो, उसे रूप धारण करते हैं। जीवॉपर अनुग्रह करनेके लिये आप ही दीजिये। अनेक आकार धारण करनेवाले आपको नमस्कार है। पुण्डरीकके यो कहनेपर भगवान् अत्यन्त प्रसन्न यह सम्पूर्ण विश्व आपमें ही स्थित है। केवल आप ही होकर बोले-'सुव्रत ! तुम्हारा कल्याण हो। आओ, इसके उपादान कारण हैं। आपने ही जगत्का निर्माण मेरे ही साथ चलो। तुम मेरे परम उपकारी और सदा किया है। नाभिसे कमल प्रकट करनेवाले आप भगवान् मुझमें ही मन लगाये रखनेवाले हो; अतः सर्वदा मेरे पद्मनाभको बारंबार नमस्कार है। समस्त वेदान्तोंमें साथ ही रहो।' जिनकी आत्मविभूतिका ही श्रवण किया जाता है, उन भीष्पजी कहते है-भक्तवत्सल भगवान् परमेश्वरको नमस्कार है। नारायण ! आप ही सम्पूर्ण श्रीधरने प्रसन्नतापूर्वक जब इस प्रकार कहा, उसी समय देवताओंके स्वामी और जगत्के कारण है। मेरे हृदय- आकाशमें देवताओंकी दुंदुभी बज उठी और आकाशसे मन्दिरमें निवास करनेवाले भगवान् शङ्ख-चक्र-गदाधर ! फूलोंकी वर्षा होने लगी। ब्रह्मा आदि देवता साधुवाद मुझपर प्रसन्न होइये। समस्त प्राणियोंके आदिभूत, इस देने लगे। सिद्ध, गन्धर्व और किन्नर गान करने लगे। पृथ्वीको धारण करनेवाले, अनेक रूपधारी तथा सबकी समस्त लोकोंद्वारा वन्दित देवदेव जगदीश्वरने वहीं उत्पत्तिके कारण श्रीविष्णुको नमस्कार है। ब्रह्मा आदि पुण्डरीकको अपने साथ ले लिया और गरुड़पर आरूढ़ देवता और सुरेश्वर भी जिनकी महिमाको नहीं जानते, हो वे परम धामको चले गये; इसलिये राजेन्द्र युधिष्ठिर !
SR No.034102
Book TitleSankshipta Padma Puran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUnknown
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages1001
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size73 MB
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