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________________ सृष्टिखण्ड ] . पितृभक्ति, पातिव्रत्य, समता, अद्रोह और विष्णुभक्तिरूप पञ्चमहायज्ञ . १७७ अद्रोहकने कहा-मित्र ! मैंने आपके हितके यों कहकर देवता विमानोंपर बैठ आनन्दपूर्वक लिये जो दुष्कर कर्म किया है, वह लोक-निन्दाके कारण स्वर्गलोकको पधारे। मनुष्य भी सन्तुष्ट होकर अपनेव्यर्थ-सा हो गया है। अतः अब मैं अग्निमें प्रवेश अपने स्थानको चल दिये तथा वे दोनों स्त्री-पुरुष भी करूँगा । सम्पूर्ण देवता और मनुष्य मेरे इस कार्यको देखें। अपने राजमहलको चले गये। तबसे अद्रोहकको दिव्य ___ श्रीभगवान् कहते है-ऐसा कहकर महाभाग दृष्टि प्राप्त हो गयी है। वे देवताओंको भी देखते हैं और अद्रोहक अग्निमें प्रवेश कर गये। किन्तु अनि उनके तीनों लोकोंकी बातें अनायास ही जान लेते हैं। शरीर, वस्त्र और केशोंको जला नहीं सका। आकाशमें व्यासजी कहते हैं-तदनन्तर अद्रोहककी खड़े समस्त देवता प्रसन्न होकर उन्हें साधुवाद देने लगे। गलीमें जाकर द्विजने उनका दर्शन किया और बड़ी सबने चारों ओरसे उनके मस्तकपर फूलोंकी वर्षा की। प्रसन्नताके साथ उनसे धर्ममय उपदेश तथा हितकी जिन-जिन लोगोंने राजकुमारकी पत्नी और अद्रोहकके बातें पूछीं। सम्बन्धमें कलङ्कपूर्ण बात कही थी, उनके मुँहपर नाना सजनाद्रोहकने कहा-धर्मज्ञ ब्राह्मण ! आप प्रकारकी कोढ़ हो गयी। देवताओंने वहाँ उपस्थित हो पुरुषोंमें श्रेष्ठ वैष्णवके पास जाइये । उनका दर्शन करनेसे अद्रोहकको आगसे खींचकर बाहर निकाला और इस समय आपका मनोरथ सफल होगा। बगलेकी मृत्यु प्रसन्नतापूर्वक दिव्य पुष्पोंसे उनका पूजन किया। उनका तथा आकाशमें वस्त्रके न सूखने आदिका कारण आपको चरित्र सुनकर मुनियोंको भी बड़ा विस्मय हुआ। समस्त विदित हो जायगा। इसके सिवा आपके हृदयमें और भी मुनिवरो तथा विभिन्न वर्णोक मनुष्योंने उन महातेजस्वी जो-जो कामनाएँ हैं, उनकी भी पूर्ति हो जायगी। महात्माका पूजन किया और उन्होंने भी सबका विशेष यह सुनकर वह ब्राह्मण द्विजरूपधारी भगवान्के आदर किया। उस समय देवताओं, असुरों और साथ प्रसन्नतापूर्वक वैष्णवके यहाँ आया। वहाँ पहुँचकर मनुष्योंने मिलकर उनका नाम सज्जनाद्रोहक रखा। उनके उसने सामने बैठे हुए शुद्ध हृदयवाले एक तेजस्वी चरणोंकी धूलिसे पवित्र हुई भूमिके ऊपर खेतीकी उपज पुरुषको देखा, जो समस्त शुद्ध लक्षणोंसे सम्पन्न एवं अधिक होने लगी। देवताओंने राजकुमारसे कहा- अपने तेजसे देदीप्यमान थे। धर्मात्मा द्विजने ध्यानमग्न 'तुम अपनी इस स्त्रीको स्वीकार करो। इन अद्रोहकके हरिभक्तसे कहा-'महात्मन् ! मैं बहुत दूरसे आपके समान कोई मनुष्य इस संसारमें नहीं हुआ है। इस समय पास आया हूँ। मेरे लिये जो-जो कर्तव्य उचित हो, इस पृथ्वीपर दूसरा कोई ऐसा पुरुष नहीं है, जिसे काम उसका उपदेश कीजिये।' और लोभने परास्त न किया हो। देवता, असुर, मनुष्य, वैष्णवने कहा-देवताओंमें श्रेष्ठ भगवान् राक्षस, मृग, पक्षी और कीट आदि सम्पूर्ण प्राणियोंके श्रीविष्णु तुमपर प्रसन्न हैं। इस समय तुम्हें देखकर मेरा लिये यह काम दुर्जय है। काम, लोभ और क्रोधके हृदय उल्लसित-सा हो रहा है। अतः तुम्हें अनुपम कारण ही प्राणियोंको सदा जन्म लेना पड़ता है। काम ही कल्याणकी प्राप्ति होगी। आज तुम्हारा मनोरथ सफल संसार-बन्धनमें डालनेवाला है। प्रायः कहीं भी होगा। मेरे घरमें भगवान् श्रीविष्णु विराजमान हैं। कामरहित पुरुषका मिलना कठिन है। इन अद्रोहकने वैष्णवके यों कहनेपर ब्राह्मणने पुनः उनसे सबको जीत लिया है; चौदहों भुवनोंपर विजय प्राप्त की कहा–'भगवान् श्रीविष्णु कहाँ है, आज कृपा करके है। इनके हृदयमें भगवान् श्रीवासुदेव बड़ी प्रसन्नताके मुझे उनका दर्शन कराइये।' साथ नित्य विराजमान रहते हैं। इनका स्पर्श और दर्शन वैष्णवने कहा-इस सुन्दर देवालयमें प्रवेश करके मनुष्य सब पापोंसे मुक्त हो जाते हैं और निष्पाप करके तुम परमेश्वरका दर्शन करो। ऐसा करनेसे तुम्हें होकर अक्षय स्वर्ग प्राप्त करते हैं।' जन्म और मृत्युके बन्धनमें डालनेवाले घोर पापसे
SR No.034102
Book TitleSankshipta Padma Puran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUnknown
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages1001
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size73 MB
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