SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 98
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ९८ • अर्चयस्व हृषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् • सदा योगाभ्यासमें तत्पर रहते थे। अपने कर्तव्यके पालन और स्वाध्यायमें लगे रहना उनका नित्यका नियम था । इस प्रकार संसारको जीतनेकी इच्छासे वे सदा शुभ कर्मका अनुष्ठान किया करते थे। ब्राह्मणदेवताको वनमें निवास करते अनेकों वर्ष व्यतीत हो गये। एक बार उनका ऐसा विचार हुआ कि मैं तीर्थ यात्रा करूँ, तीर्थोके पावन जलसे अपने शरीरको पवित्र बनाऊँ। ऐसा सोचकर उन्होंने सूर्योदयके समय शुद्ध चित्तसे पुष्कर तीर्थमें स्नान किया और गायत्रीका जप तथा नमस्कार करके यात्राके लिये चल पड़े। जाते-जाते एक जंगलके बीच कण्टकाकीर्ण भूमिमें, जहाँ न पानी था न वृक्ष, उन्होंने अपने सामने पाँच पुरुषोंको खड़े देखा, जो बड़े ही भयङ्कर थे। उन विकट आकार तथा पापपूर्ण दृष्टिवाले अत्यन्त घोर प्रेतोंको देखकर उनके हृदयमें कुछ भयका सञ्चार हो आया; फिर भी वे निश्चलभावसे खड़े रहे। यद्यपि उनका चित्त भयसे उद्विग्न हो रहा था, तथापि उन्होंने धैर्य धारण करके मधुर शब्दोंमें पूछा— "विकराल मुखवाले प्राणियो ! तुमलोग कौन हो ? किसके द्वारा कौन सा ऐसा कर्म बन गया है, जिससे तुम्हें इस विकृत रूपकी प्राप्ति हुई है ?" [ संक्षिप्त पद्मपुराण प्रेतोंने कहा- हम भूख और प्याससे पीड़ित हो सर्वदा महान् दुःखसे घिरे रहते हैं। हमारा ज्ञान और विवेक नष्ट हो गया है, हम सभी अचेत हो रहे हैं। हमें इतना भी ज्ञान नहीं है कि कौन दिशा किस ओर है। दिशाओंके बीचकी अवान्तर दिशाओंको भी नहीं पहचानते। आकाश, पृथ्वी तथा स्वर्गका भी हमें ज्ञान नहीं है। यह तो दुःखकी बात हुई। सुख इतना ही है कि सूर्योदय देखकर हमें प्रभात-सा प्रतीत हो रहा है। हममेंसे एकका नाम पर्युषित है, दूसरेका नाम सूचीमुख है, तीसरेका नाम शीघ्रग, चौथेका रोधक और पाँचवेंका लेखक है। ब्राह्मणने पूछा- तुम्हारे नाम कैसे पड़ गये ? क्या कारण है, जिससे तुमलोगोंको ये नाम प्राप्त हुए हैं ? प्रेतोंमेंसे एकने कहा- मैं सदा स्वादिष्ट भोजन किया करता था और ब्राह्मणोंको पर्युषित (बासी) अन्न देता था इसी हेतुको लेकर मेरा नाम पर्युषित पड़ा है। मेरे इस साथीने अन्न आदिके अभिलाषी बहुत-से ब्राह्मणोंकी हिंसा की है, इसलिये इसका नाम सूचीमुख पड़ा है। यह तीसरा प्रेत भूखे ब्राह्मणके याचना करनेपर भी [उसे कुछ देनेके भयसे] शीघ्रतापूर्वक वहाँसे चला गया था; इसलिये इसका नाम शीघ्रग हो गया। यह चौथा प्रेत ब्राह्मणोंको देनेके भयसे उद्विग्न होकर सदा अपने घरपर ही स्वादिष्ठ भोजन किया करता था; इसलिये यह रोधक कहलाता है तथा हमलोगोंमें सबसे बड़ा पापी जो यह पाँचवाँ प्रेत है, यह याचना करनेपर चुपचाप खड़ा रहता था या धरती कुरेदने लगता था, इसलिये इसका नाम लेखक पड़ गया। लेखक बड़ी कठिनाईसे चलता है। रोधकको सिर नीचा करके चलना पड़ता है। शीघ्रग पढ्नु हो गया है। सूची (हिंसा करनेवाले) का सूईके समान मुँह हो गया है तथा मुझ पर्युषितकी गर्दन लम्बी और पेट बड़ा हो गया है। अपने पापके प्रभावसे मेरा अण्डकोष भी बढ़ गया है तथा दोनों ओठ भी लम्बे होनेके कारण लटक गये हैं। यही हमारे प्रेतयोनिमें आनेका वृत्तान्त है, जो सब मैंने तुम्हें बता दिया। यदि तुम्हारी इच्छा हो तो कुछ और भी पूछो। पूछनेपर उस बातको भी बतायेंगे।
SR No.034102
Book TitleSankshipta Padma Puran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUnknown
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages1001
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size73 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy