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________________ 434 * अर्चयस्व हृषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् . [संक्षिप्त पापुराण मणिके बने हुए महल तथा गोपुर (फाटक) उस लोकोंकी जननी कामाक्षा देवी सन्तुष्ट होकर यहाँ विराज नगरीकी शोभा बढ़ा रहे थे। वहाँकै मनुष्य सब प्रकारके रही हैं ?' भोग भोगनेवाले तथा सदाचारसे सुशोभित थे। वहाँ सुमतिने कहा-हेमकूट नामसे प्रसिद्ध एक बाण सन्धान करनेमें चतुर वीर हाथोंमें धनुष लिये उस पवित्र पर्वत है, जो सम्पूर्ण देवताओंसे सुशोभित रहा पुरीके श्रेष्ठ राजा सुमदको प्रसत्र किया करते थे। शत्रुघ्नने करता है। वहाँ ऋषि-मुनियोंसे सेवित विमल नामका दूरसे ही उस नगरीको देखा। उसके पास ही एक उद्यान एक तीर्थ है। वहीं राजा सुमदने तपस्या की थी। उनके था, जो उस नगरमें सबसे श्रेष्ठ और शोभायमान दिखायी राज्यकी सीमापर रहनेवाले सम्पूर्ण सामन्त नरेशोंने, जो देता था। तमाल और ताल आदिके वृक्ष उसकी वास्तवमें शत्रु थे, एक साथ मिलकर उनके राज्यपर सुषमाको और भी बढ़ा रहे थे। यज्ञका घोड़ा उस चढ़ाई की। उस युद्धमें उनके पिता, माता तथा उपवनके बीच में घुस गया तथा उसके पीछे-पीछे वीर प्रजावर्गके लोग भी शत्रुओंके हाथसे मारे गये। तब शत्रुघ्न भी, जिनके चरण-कमलोंकी सेवामें अनेकों सर्वथा असहाय होकर राजा सुमद तपस्याके लिये धनुर्धर क्षत्रिय मौजूद थे, उसमें जा पहुंचे। वहाँ जानेपर उपयोगी विमलतीर्थमें गये और वहाँ तीन वर्षतक एक उन्हें एक देव-मन्दिर दिखायी दिया, जिसकी रचना पैरसे खड़ा हो मन-ही-मन जगदम्बाका ध्यान करते रहे। अद्भुत थी। वह कैलास-शिखरके समान ऊँचा तथा उस समय उनकी आँखें नासिकाके अग्रभागपर जमी शोभासे सम्पन्न था। देवताओंके लिये भी वह सेव्य जान रहती थीं। इसके बाद तीन वर्षांतक उन्होंने सूखे पत्ते पड़ता था। उस सुन्दर देवालयको देखकर श्रीरघुनाथजीके चबाकर अत्यन्त उग्र तपस्या की, जिसका अनुष्ठान भाई शत्रुघ्नने अपने सुमति नामक मन्त्रीसे, जो अच्छे दूसरेके लिये अत्यन्त कठिन था। तत्पश्चात् पुनः तीन वक्ता थे, पूछा। वर्षातक उन्होंने और भी कठोर नियम धारण कियेशत्रुन बोले-मन्त्रिवर ! बताओ, यह क्या है? जाड़ेके दिनोंमें वे पानीमें डूबे रहते, गर्मीमें पञ्चाग्निका किस देवताका मन्दिर है? किस देवताका यहाँ पूजन सेवन करते तथा वर्षाकालमें बादलोंकी ओर मुँह किये होता है तथा वे देवता किस हेतुसे यहाँ विराजमान है? मैदानमें खड़े रहते थे। तदनन्तर पुनः तीन वर्षांतक वे मन्त्री सब बातोंके जानकार थे, उन्होंने शत्रुघ्नका धीर राजा अपने हृदयान्तर्वी प्राणवायुको रोककर केवल प्रश्न सुनकर कहा-'वीरवर ! एकाग्रचित्त होकर सुनो, भवानीके ध्यानमें संलग्न रहे। उस समय उन्हें मैं सब बातोंका यथावत् वर्णन करता हूँ, इसे तुम जगदम्बाके सिवा दूसरा कुछ दिखलायी नहीं देता था। कामाक्षा देवीका उत्तम स्थान समझो। यह जगत्को इस प्रकार जब बारहवाँ वर्ष व्यतीत हो गया, तो उनकी एकमात्र कल्याण प्रदान करनेवाला है। पूर्वकालमें भारी तपस्या देखकर इन्द्रने मन-ही-मन उसपर विचार अहिच्छत्रा नगरीके स्वामी राजा सुमदकी प्रार्थनासे किया और भयके कारण वे उनसे डाह करने लगे। भगवती कामाक्षा यहाँ विराजमान हुई, जो भक्तोंका दुःख उन्होंने अप्सराओंके साथ कामदेवको, जो ब्रह्मा और दूर करती हुई उनकी समस्त कामनाओंको पूर्ण करती हैं। इन्द्रको भी परास्त करनेके लिये उद्यत रहता था, वीरशिरोमणि शत्रुघ्न ! तुम इन्हें प्रणाम करो।' मन्त्रीके परिवारसहित बुलाकर इस प्रकार आज्ञा दी-'सखे वचन सुनकर शत्रुओंको ताप देनेवाले नरश्रेष्ठ शत्रुनने कामदेव ! तुम सबका मन मोहनेवाले हो, जाओ, मेरा भगवती कामाक्षाको प्रणाम किया और उनके प्रकट एक प्रिय कार्य करो, जैसे भी हो सके राजा सुमदकी होनेके सम्बन्धकी सब बातें पूछी-'मन्त्रिवर! तपस्यामें विघ्न डालो।' अहिच्छवाके स्वामी राजा सुमद कौन हैं? उन्होंने कामदेवने कहा-देवराज ! मुझ सेवकके रहते कौन-सी तपस्या की है, जिसके प्रभावसे ये सम्पूर्ण हुए आप चिन्ता न कीजिये, आर्य ! मैं अभी सुमदके
SR No.034102
Book TitleSankshipta Padma Puran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUnknown
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages1001
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size73 MB
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