SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 569
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पातालखण्ड] • मन्त्रचिन्तामणिका उपदेश तथा उसके भ्यान आदिका वर्णन • हैं, उन दोनोंको तुम्हें बताता हूँ, मन्त्र-चिन्तामणि, युगल, सर्वथा मुक्त हो, उसे यत्नपूर्वक इस मन्त्रका उपदेश देना द्वय और पञ्चपदी-ये इन दोनों मन्त्रोंके पर्यायवाची नाम चाहिये। इस मन्त्रका ऋषि मैं ही हूँ। बल्लवी-वल्लभ हैं। इनमें पहले मन्त्रका प्रथम पद है-'गोपीजन', श्रीकृष्ण इसके देवता हैं तथा प्रिया-सहित भगवान् द्वितीय पद है-'वल्लभ', तृतीय पद है-'चरणान्', गोविन्दके दास्यभावकी प्राप्तिके लिये इसका विनियोग चतुर्थ पद है-'शरणम्' तथा पश्चम पद है 'प्रपो।' किया जाता है। यह मन्त्र एक बारके ही उच्चारणसे इस प्रकार यह ('गोपीजनवल्लभवरणान् शरणं कृतकृत्यता प्रदान करनेवाला है। प्रपद्ये) मन्त्र पाँच पदोंका है। इसका नाम मन्त्र- द्विजश्रेष्ठ ! अब मैं इस मन्त्रका ध्यान बतलाता हूँ। चिन्तामणि है। इस महामन्त्रमें सोलह अक्षर है। दूसरे वृन्दावनके भीतर कल्पवृक्षके मूलभागमें रलमय मन्त्रका स्वरूप इस प्रकार है-'नमो गोपीजन' इतना सिंहासनके ऊपर भगवान् श्रीकृष्ण अपनी प्रिया कहकर पुनः 'वल्लभाभ्याम्' का उच्चारण करना श्रीराधिकाजीके साथ विराजमान हैं। श्रीराधिकाजी उनके चाहिये। तात्पर्य यह कि 'नमो गोपीजनकल्लभाभ्याम्' वामभागमें बैठी हुई हैं। भगवान्का श्रीविग्रह मेघके के रूपमें यह दो पदोंका मन्त्र है, जो दस अक्षरोंका समान श्याम है। उसके ऊपर पीताम्बर शोभा पा रहा है। बताया गया है। जो मनुष्य श्रद्धा या अश्रद्धासे एक बार उनके दो भुजाएँ है। गलेमें वनमाला पड़ी हुई है। भी इस पञ्चपदीका जप कर लेता है, उसे निश्चय ही मस्तकपर मोरपंखका मुकुट शोभा दे रहा है। श्रीकृष्णके प्यारे भक्तोंका सान्निध्य प्राप्त होता है इसमें मुख-मण्डल करोड़ों चन्द्रमाओंकी भाँति कान्तिमान् है। तनिक भी सन्देह नहीं है। इस मन्त्रको सिद्ध करनेके लिये वे अपने चञ्चल नेत्रोंको इधर-उधर घुमा रहे हैं। उनके न तो पुरश्चरणकी अपेक्षा पड़ती है और न न्यास- कानोंमें कनेर-पुष्पके आभूषण सुशोभित है। ललाटमें विधानका क्रम ही अपेक्षित है। देश-कालका भी कोई दोनों ओर चन्दन तथा बीचमें कुङ्कम-विन्दुसे तिलक नियम नहीं है। अरि और मित्र आदिके शोधनकी भी लगाया गया है, जो मण्डलाकार जान पड़ता है। दोनों आवश्यकता नहीं है। मुनीश्वर ! ब्राह्मणसे लेकर कुण्डलोंकी प्रभासे वे प्रातःकालीन सूर्यके समान तेजस्वी चाण्डालतक सभी मनुष्य इस मन्त्रके अधिकारी हैं। दिखायी दे रहे हैं। उनके कपोल दर्पणकी भाँति स्वच्छ हैं, स्त्रियाँ, शूद्र आदि, जड, मूक, अन्ध, पङ्ग, हूण, किरात, जो पसीनेकी छोटी-छोटी बूंदोंके कारण बड़े शोभायमान पुलिन्द, पुल्कस, आभीर, यवन, कडू एवं खश आदि प्रतीत होते हैं। उनके नेत्र प्रियाके मुखपर लगे हुए हैं। पापयोनिके दम्भी, अहङ्कारी, पापी, चुगुलखोर, गोघाती, उन्होंने लोलवश अपनी भौहें ऊँची कर ली हैं। ऊँची ब्रह्महत्यारे, महापातकी, उपपातकी, ज्ञान-वैराग्यहीन, नासिकाके अग्रभागमें मोतीकी बुलाक चमक रही है। श्रवण आदि साधनोंसे रहित तथा अन्य जितने भी निकृष्ट पके हुए कुंदरूके समान लाल ओठ दाँतोंका प्रकाश श्रेणीके लोग हैं, उन सबका इस मन्त्रमें अधिकार है। पड़नेसे अधिक सुन्दर दिखायी देते हैं। केयूर, अङ्गद, मुनिश्रेष्ठ ! यदि सर्वेश्वर भगवान् श्रीकृष्णमें उनकी भक्ति अच्छे-अच्छे रन तथा मुंदरियोंसे भुजाओं और हाथोंकी है तो वे सब-के-सब अधिकारी हैं, अन्यथा नहीं; शोभा यहुत बढ़ गयी है। वे बायें हाथमे मुरली तथा इसलिये भगवान्में भक्ति न रखनेवाले कृतघ्र, मानी, दाहिनेमें कमल लिये हुए हैं। करधनीकी प्रभासे शरीरका श्रद्धाहीन और नास्तिकको इस मन्त्रका उपदेश नहीं देना मध्यभाग जगमगा रहा है। नूपुरोसे चरण सुशोभित हो चाहिये। जो सुनना न चाहता हो, अथवा जिसके हृदयमें रहे है। भगवान् क्रीड़ा-रसके आवेशसे चञ्चल प्रतीत होते गुरुके प्रति सेवाका भाव न हो उसे भी यह मन्त्र नहीं है। उनके नेत्र भी चपल हो रहे हैं। वे अपनी प्रियाको बताना चाहिये। जो श्रीकृष्णका अनन्य भक्त हो, जिसमें बारंबार हैंसाते हुए स्वयं भी उनके साथ हँस रहे हैं। इस दम्भ और लोभका अभाव हो तथा जो काम और क्रोधसे प्रकार श्रीराधाके साथ श्रीकृष्णका चिन्तन करना चाहिये।
SR No.034102
Book TitleSankshipta Padma Puran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUnknown
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages1001
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size73 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy