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________________ . अर्जयस्व हवीकेशं यदीच्छसि परं पदम् . [संक्षिप्त पयपुराण . . . . . . . . . . . .. . .. . . . .. . . . . .। करना चाहिये; अन्यथा सब कुछ निष्फल हो जाता है। नारियलका फल अर्पण करे अथवा उसे फोड़कर उसकी वैशाखकी तृतीयाको विशेषतः जलमें अथवा मण्डल, गरी निकाल कर दे। बेरका फल निवेदन करे । कटहलका मण्डप या बहुत बड़े वनमें यह कार्य सम्पन्न करना कोया निकालकर भोग लगावे तथा दहीयुक्त अन्नको घीसे चाहिये। वैशाख-मासमें प्रतिदिन भगवान्के अङ्गको तर करके भगवान्के आगे रखे। कहाँतक कहा जाय? सुगन्धित चन्दन आदि लगाकर परिपुष्ट करे। प्रयलपूर्वक जो-जो वस्तु अपनेको विशेष प्रिय हो, वह सब भगवान्को ऐसा कार्य करे, जो भगवान्के कृश शरीरके लिये पुष्टि- अर्पण करे। नैवेद्य और वस्त्र आदि भगवान्को अर्पण कारक जान पड़े। चन्दन, अगरु, हीवेर, कालागरु, करे। पुनः उसे स्वयं उपयोगमें न लावे। विष्णुके उद्देश्यसे कुङ्कम, रोचना, जटामांसी और मुरा-ये विष्णुके दी हुई वस्तु विशेषतः उनके भक्तोंको ही देनी चाहिये। उपयोगमें आनेवाले आठ गन्ध माने गये हैं। उन सुगन्धित महेश्वरि ! इस प्रकार संक्षेपसे ही मैंने तुम्हारे सामने ये कुछ पदार्थोका भगवान् विष्णुके अङ्गोंपर लेप करे । तुलसीके बातें बतायी हैं। जिन शास्त्रों में श्रीकृष्णके रूप और काष्ठको चन्दनकी भाँति घिसकर उसमें कर्पूर और अगरु गुणोंका वर्णन है, उन्हें समझनेकी शक्ति हो जाय तो और मिला दे अथवा केसर ही मिलावे तो वह भगवान के लिये कोई शास्त्र पढ़नेकी कुछ भी आवश्यकता नहीं है। 'हरिचन्दन' हो जाता है । जो मनुष्य यात्राके समय भक्ति- भगवान के प्रेम, भाव, रस, भक्ति, विलास, नाम तथा पूर्वक श्रीकृष्णका दर्शन करते हैं, उनकी पुनरावृत्ति नहीं हारोंमें यदि मन लग गया तो कामिनियोंसे क्या लेना है ? होती। जो लोग सुगन्धमिश्रित जलसे भगवान्को नहलाते अतः ब्रज-बालकोंके स्वामी श्रीकृष्णको, उनके क्रीडाहैं; उनके लिये भी यही फल है। अथवा वैशाख-मासमें निकेतन वृन्दावनको, व्रजभूमिको तथा यमुना-जलको मन भगवानको फूलोंके भीतर रखना चाहिये। वृन्दावनमें लगाकर भजो। यदि इस शरीरमे त्रिभुवनके स्वामी जाकर तरह-तरहके फल जुटावे और भगवानको भोग भगवान् गोविन्दके चरणारविन्दोंकी धूलि लिपटी हो तो लगाकर किसी सुयोग्य भगवद्भक्तको सब खिला दे। इसमें अगरु और चन्दन आदि लगाना व्यर्थ है। मन्त्रचिन्तामणिका उपदेश तथा उसके ध्यान आदिका वर्णन HARSIN MINS सूतजी कहते है-महर्षियो ! एक समयकी बात है, देवाधिदेव जगद्गुरु भगवान् सदाशिव यमुनाजीके तटपर बैठे हुए थे। उस समय नारदजीने उनके चरणोंमें प्रणाम करके कहा-'देवदेव महादेव ! आप सर्वज्ञ, जगदीश्वर, भगवद्धर्मका तत्त्व जाननेवाले तथा श्रीकृष्णमन्त्रका ज्ञान रखनेवालोंमें सर्वश्रेष्ठ है। देवेश्वर ! यदि मैं सुननेका अधिकारी होऊँ तो कृपा करके मुझे वह मन्त्र बताइये, जो एक बारके उच्चारण मात्रसे मनुष्योंको उत्तम फल प्रदान करता है। शिवजी बोले-महाभाग ! तुमने यह बहुत उत्तम प्रश्न किया है। क्यों न हो, तुम सम्पूर्ण जगत्के हितैषी जो ठहरे | मैं तुम्हें मन्त्र-चिन्तामणिका उपदेश दे रहा हूँ। यद्यपि वह बहुत ही गोपनीय है तो भी मैं तुमसे । उसका वर्णन करूंगा। कृष्णके दो मन्त्र अत्यन्त उत्तम COM
SR No.034102
Book TitleSankshipta Padma Puran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUnknown
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages1001
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size73 MB
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