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________________ ७८६ *********** . अर्जयस्व हृषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् • MS अविनाशी श्रीपार्वतीजीने पूछा- प्रभो ! भगवान् वासुदेवका स्मरण कैसे करना चाहिये ? श्रीमहादेवजी बोले – देवेश्वरि ! मैं वास्तविक रूपसे भगवान् के स्वरूपका साक्षात्कार करके निरन्तर उनका स्मरण करता रहता हूँ। जैसे प्यासा मनुष्य बड़ी व्याकुलताके साथ पानीकी याद करता है, उसी प्रकार मैं भी आकुल होकर श्रीविष्णुका स्मरण करता हूँ। जिस प्रकार सर्दीका सताया हुआ संसार अनिका स्मरण करता है, वैसे ही देवता, पितर, ऋषि और मनुष्य निरन्तर भगवान् विष्णुका चिन्तन करते रहते हैं। जैसे पतिव्रता नारी सदा पतिकी याद किया करती है, भयसे आतुर मनुष्य किसी निर्भय आश्रयको खोजता फिरता है, धनका लोभी जैसे धनका चिन्तन करता है और पुत्रकी इच्छा रखनेवाला मनुष्य जैसे पुत्रके लिये लालायित रहता है, उसी प्रकार मैं भी श्रीविष्णुका स्मरण करता हूँ। जैसे हंस मानसरोवरको ऋषि भगवान्‌के स्मरणको, वैष्णव भक्तिको, पशु हरी हरी घासको और साधु पुरुष धर्मको चाहते हैं, वैसे ही में श्रीविष्णुका चिन्तन करता हूँ। * जैसे समस्त प्राणियोंको आत्माका आश्रयभूत शरीर प्रिय है, जिस प्रकार जीव अधिक आयुकी अभिलाषा रखते हैं, जैसे भ्रमर पुष्पको, चक्रवाक सूर्यको और परमात्माके प्रेमीजन भक्तिको चाहते हैं, उसी प्रकार मैं भी भगवत्स्मरणका प्रकार, भक्तिकी महत्ता, भगवत्तत्त्वका ज्ञान, प्रारब्धकर्मकी प्रबलता तथा भक्तियोगका उत्कर्ष [ संक्षिप्त पद्मपुराण 7571 * हंसा मानसमिच्छन्ति ऋषयः स्मरणं हरेः । भक्ता सूर्यकान्तरवेयोगाद्वह्निस्तत्र + एवं एवं वै साधुसंयोगाद्धरौ भक्तिः प्रजायते। शीतरश्मिशिला यद्वचन्द्रयोगादपः स्त्रवेत् ॥ वैष्णवसंयोगाद्भक्तिर्भवति शाश्वती। कुमुद्वती यथा सोमं दृष्ट्ा पुष्पं विकासते ॥ तद्वदेवे कृता भक्तिर्मुक्तिदा सर्वदा नृणाम्। *************** श्रीविष्णुका स्मरण करता हूँ। जैसे अन्धकारसे घबराये हुए लोग दीपक चाहते हैं, उसी प्रकार साधु पुरुष इस जगत्‌में केवल भगवान्‌के स्मरणकी इच्छा रखते हैं। जैसे थके-माँदै मनुष्य विश्राम, रोगी निद्रा और आलस्यहीन पुरुष विद्या चाहते हैं, उसी प्रकार में भी श्रीविष्णुका स्मरण करता हूँ। जैसे सूर्यकान्तमणि और सूर्यकी किरणोंका संयोग होनेपर आग प्रकट हो जाती है, उसी प्रकार साधु पुरुषोंके संसर्गसे श्रीहरिके प्रति भक्ति उत्पन्न होती है। जैसे चन्द्रकान्तमणि चन्द्रकिरणोंके संयोगसे द्रवीभूत होने लगती है, उसी प्रकार वैष्णव पुरुषोंके संयोगसे स्थिर भक्तिका प्रादुर्भाव होता है। जैसे कुमुदिनी चन्द्रमाको देखकर खिल जाती है, उसी प्रकार भगवान्के प्रति की हुई भक्ति मनुष्योंको सदा मोक्ष प्रदान करनेवाली है । भक्तिसे, स्नेहसे, द्वेषभावसे, स्वामि-सेवक-भावसे अथवा विचारपूर्वक बुद्धिके द्वारा जिस किसी भावसे भी जो भगवान् जनार्दनका चिन्तन करते हैं, वे इस लोकमें सुख भोगकर अन्तमें श्रीविष्णुके सनातन धामको जाते हैं। अहो ! भगवान् विष्णुका माहात्म्य अद्भुत है। उसपर विचार करनेसे रोमाञ्च हो आता है। भगवान्का जैसे-तैसे किया हुआ स्मरण भी मोक्ष देनेवाला है। बढ़े हुए धनसे और विपुल बुद्धिसे भगवान्‌की प्राप्ति नहीं होती; केवल भक्तियोगसे ही क्षणभरमें भगवान्‌का अपने भक्तिमिच्छन्ति तथा विष्णुं स्मराम्यहम् ॥ (१२८ । ७) प्रजायते ॥ भक्त्या वा स्नेहभावेन द्वेषभावेन वा पुनः ॥ केऽपि स्वामित्वभावेन बुद्धया या बुद्धिपूर्वकम्। येन केनापि भावेन चिन्तयन्ति जनार्दनम् ॥ इहलोके सुखं भुक्त्वा यान्ति विष्णोः सनातनम् । (१२८ । १४ - १७) (१२८ ॥२० - २२)
SR No.034102
Book TitleSankshipta Padma Puran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUnknown
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages1001
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size73 MB
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