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________________ ४१२ • अयस्व हृषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् । [संक्षिप्त पद्मपुराण .....................AMARINA ............................................... ........ ही कारण जगत्पूज्य श्रीरामचन्द्रजीको भी वनमें जाना शास्त्र-चतुर, नीतिज्ञ और विद्वान् मन्त्री जब भरतजीको पड़ा। सुकुमार शरीरवाली सीतासे सेवित होकर वे इस सान्त्वना देते हुए कुछ कहते तब वे उन्हें इस प्रकार उत्तर समय वनमें रहते हैं। अहो ! जो सीता फूलकी शय्यापर देते थे-'अमात्यगण ! मुझ भाग्यहीनसे आपलोग क्यों पुष्पोंकी डंठलके स्पर्शसे भी व्याकुल हो उठती थीं और बातचीत करते हैं? मैं संसारके सब लोगोंसे अधम हूँ जो कभी सूर्यकी धूपमें घरसे बाहर नहीं निकलीं, वे ही क्योंकि मेरे ही कारण मेरे बड़े भाई श्रीराम आज वनमें पतिव्रता जनक-किशोरी आज मेरे कारण जंगलोंमें भटक जाकर कष्ट उठा रहे हैं। मुझ अभागेके लिये अपने पापोंके रही है ! जिनके ऊपर कभी राजाओंकी भी दृष्टि नहीं पड़ी प्रायश्चित्त करनेका यह अवसर प्राप्त हुआ है, अतः मैं थी, उन्हीं सीताको आज किरातलोग प्रत्यक्ष देखते हैं। जो श्रीरामचन्द्रजीके चरणोंका निरन्तर आदरपूर्वक स्मरण यहाँ मीठे-मीठे पकवानोंको भोजनके लिये आग्रह करते हुए अपने दोषोंका मार्जन करूंगा। इस जगत्में माता करनेपर भी नहीं खाना चाहती थीं, वे जानको आज जंगली सुमित्रा भी धन्य हैं ! वे ही अपने पतिसे प्रेम करनेवाली फलोंके लिये स्वयं याचना करती होंगी।' इस प्रकार तथा वीर पुत्रकी जननी हैं, जिनके पुत्र लक्ष्मण सदा श्रीरामके प्रति भक्ति रखनेवाले महाराज भरत प्रतिदिन श्रीरामचन्द्रजीके चरणोंकी सेवामें रहते हैं।' इस प्रकार प्रातःकाल सूर्योपस्थानके पश्चात् उपर्युक्त बातें कहा करते भ्रातृ-वत्सल भरत जहाँ रहकर उच्चस्वरसे विलाप किया थे। उनके दुःख-सुखमें समान रूपसे हाथ बँटानेवाले करते थे, उस नन्दिग्रामको भगवान् श्रीरामने देखा। भरतसे मिलकर भगवान श्रीरामका अयोध्याके निकट आगमन शेषजी कहते हैं-मुने ! नन्दिग्रामपर दृष्टि पड़ते आ पहुँचे हैं।' इससे मेरा आगमन जानकर मेरे छोटे भाई ही श्रीरघुनाथजीका चित्त भरतको देखनेकी उत्कण्ठासे भरत शीघ्र ही प्रसन्न हो जायेंगे।" विह्वल हो गया। उन्हें धर्मात्माओंमें अग्रगण्य भाई परम बुद्धिमान् श्रीरघुवीरके ये वचन सुनकर भरतको बारंबार याद आने लगी। तब वे महाबली हनुमानजी उनकी आज्ञाका पालन करते हुए भरतजीके वायु-नन्दन हनुमानजीसे बोले, "वीर ! तुम मेरे भाईके निवास स्थान नन्दिप्रामको गये। वहाँ पहुँचकर उन्होंने पास जाओ। उनका शरीर मेरे वियोगसे क्षीण होकर देखा, भरतजी बूढ़े मन्त्रियोंके साथ बैठे हैं और अपने छड़ीके समान दुबला-पतला हो गया है और वे उसे पूज्य भाताके वियोगसे अत्यन्त दुर्बल हो गये हैं। उस किसी प्रकार हठपूर्वक धारण किये हुए है। जो वल्कल समय उनका मन श्रीरघुनाथजीके चरणारविन्दोंके पहनते हैं, मस्तकपर जटा धारण करते हैं, जिनकी दृष्टि में मकरन्दमें डूबा हुआ था और वे अपने वृद्ध मन्त्रियोंसे परायी स्त्री माता और सुवर्ण मिट्टीके ढेलेके समान है उन्हींकी कथा-वार्ता कह रहे थे। वे ऐसे जान पड़ते थे तथा जो प्रजाजनोको अपने पुत्रोंकी भांति स्नेह-दृष्टि से मानो धर्मके मूर्तिमान् स्वरूप हों अथवा विधाताने मानो देखते हैं, वे मेरे धर्मज्ञ भ्राता भरत दुःखी हैं। उनका सम्पूर्ण सत्त्वगुणको एकत्रित करके उसीके द्वारा उनका शरीर मेरे वियोगजनित दुःखरूप अग्निकी ज्वालामें दग्ध निर्माण किया हो। भरतजीको इस रूपमें देखकर हो रहा है; अतः इस समय तुम तुरंत जाकर मेरे हनुमान्जीने उन्हें प्रणाम किया तथा भरतजी भी उन्हें आगमनके संदेशरूपी जलकी वर्षासे उन्हें शान्त करो। देखते ही तुरंत हाथ जोड़कर खड़े हो गये और उन्हें यह समाचार सुनाओ कि 'सीता, लक्ष्मण, सुग्रीव बोले-'आइये, आपका स्वागत है; श्रीरामचन्द्रजीकी आदि कपीश्वरों तथा विभीषणसहित राक्षसोंको साथ ले कुशल कहिये। वे इस प्रकार कह ही रहे थे कि इतनेमे तुम्हारे भाई श्रीराम पुष्पक विमानपर बैठकर सुखपूर्वक उनकी दाहिनी बाँह फड़क उठी। हृदयसे शोक निकल
SR No.034102
Book TitleSankshipta Padma Puran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUnknown
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages1001
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size73 MB
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