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________________ उत्तरखण्ड ] • भगवान् श्रीकृष्णको मथुरा-यात्रा, कंसवम और उग्रसेनका राज्याभिषेक . १७१ आकाशमे उड़ गयी और आठ भुजाओंसे युक्त हो पृथ्वीको रक्षा करूंगा। अतः आपलोग शोक छोड़कर गम्भीर वाणीमें कंससे रोषपूर्वक बोली-'ओ नीच मथुरापुरीको चलिये। श्रीहरिके ऐसा कहनेपर नन्द आदि दानव ! जिनका कहीं अन्त नहीं है, जो सम्पूर्ण गोपोंने बारंबार छातीसे लगाकर उनका मस्तक संघा। देवताओंके ईश्वर और पुरुषोत्तम हैं, वे तुम्हारा वध उन महात्माके अलौकिक कर्मोंपर विचार करके तथा करनेके लिये व्रजमें जन्म ले चुके हैं।' यो कहकर अक्रूरजीकी बातोंको सुनकर उन सबकी चिन्ता दूर हो महामाया हिमालय पर्वतपर चली गयी। तभीसे वह गयी। तत्पश्चात् यशोदाने अक्रूरको दही, दूध, घी दुष्टात्मा भयसे उद्विग्न हो गया और महात्मा श्रीकृष्णको आदिसे युक्त भांति-भांतिके पवित्र, स्वादिष्ट, मधुर और मारनेके लिये एक-एक करके दानवोंको भेजने लगा। रुचिकर पकान परोसकर भोजन कराया। उनके साथ बालक होनेपर भी बुद्धिमान् श्रीकृष्णने खेल-खेलमें ही बलराम, श्रीकृष्ण, नन्द आदि श्रेष्ठ गोप, अनेकों सुहद, सब दानवोंको मौतके घाट उतार दिया है। इन परमेश्वरने बालक और वृद्ध भी थे। यशोदाजीके दिये हुए अनेक अद्भुत कर्म किये हैं। गोवर्धन-धारण, नागराज रुचिवर्धक उत्तम अत्रको यादवश्रेष्ठ अक्रूरजीने बड़े कालियका निर्वासन, इन्द्रसे समागम और सम्पूर्ण प्रेमसे खाया। भोजन करानेके पश्चात् नन्दरानीने जल राक्षसोंका संहार आदि सारे कर्म श्रीकृष्णके ही किये हुए देकर आचमन कराया और अन्तमें कपूरसहित पानका हैं; यह बात नारदजीके मुंहसे सुनकर कंस अत्यन्त बौड़ा दिया। फिर सूर्यास्त होनेपर अक्रूरजीने भयसे व्याकुल हो उठा है। महाबाहु बलराम और सन्ध्योपासना की। उसके बाद बलराम और श्रीकृष्णके श्रीकृष्ण बड़े दुर्धर्ष वीर हैं; इसलिये इन दोनोंको वहीं साथ खीर खाकर वे उन्हींके साथ शयन करनेके लिये बुलाकर वह बड़े-बड़े मतवाले हाथियोंसे कुचलवा गये। दीपकके प्रकाशसे सुशोभित श्रेष्ठ एवं रमणीय डालना चाहता है अथवा पहलवानोंको भिड़ाकर इन्हें भवनमें विचित्र पलंग बिछा था। स्वच्छ सुन्दर मार डालनेको उद्यत है। श्रीकृष्णको बुला लानेके लिये बिछावनपर भांति-भांतिके फूल उसकी शोभा बढ़ा रहे ही उसने मुझे यहाँ भेजा है। यही सब उस दुष्ट दानवको थे। उस पलंगपर भगवान् श्रीकृष्ण सोते थे, मानो चेष्टा है, जिसे मैंने बता दिया। अब आप समस्त शेषनागकी शय्यापर श्रीनारायण शयन करते हो। व्रजवासी दही-घी आदि लेकर कल सबेरे धनुषयज्ञका भगवान्को शयन करते देख सहसा अक्रूरके नेत्रोंमें उत्सव देखनेके लिये मथुरामें चले। बलराम-श्रीकृष्ण आनन्दके आँसू छलक पड़े। उनका सारा शरीर पुलकित और समस्त गोपोंको राजाके पास चलना है। वहाँ निश्चय हो उठा। उन्होंने तमोगुणी निद्राको त्याग दिया। वे ही कंस श्रीकृष्णके हाथसे मारा जायगा; अतः आपलोग भगवद्भक्तोंमें श्रेष्ठ तो थे ही, अपने परम कल्याणका राजाको आज्ञासे निर्भय होकर वहाँ चलिये। विचार करके भगवान्के चरण दबाने लगे। उस समय _ इतना कहकर बुद्धिमान् अक्रूर चुप हो गये। उनकी वे मन-ही-मन सोच रहे थे-'इसीमें मेरे जीवनकी बातें बड़ी ही भयङ्कर और रोंगटे खड़े कर देनेवाली थीं। सफलता है। यही जीवन वास्तवमें उत्तम जीवन है। यही उन्हें सुनकर नन्द आदि समस्त बड़े-बूढ़े गोप भयसे धर्म तथा यही सर्वश्रेष्ठ मोक्षसुख है। शिव और ब्रह्मा व्याकुल हो दुःखके महान् समुद्र में डूब गये। उस समय आदि देवता, सनकादि मुनीश्वर तथा वसिष्ठ आदि महर्षि कमलनयन भगवान् श्रीकृष्णने उन सबको आश्वासन जिनका दर्शन करना तो दूर रहा, मनसे स्मरण भी नहीं देकर कहा-'आपलोग भय न करें। मैं दुरात्मा कसका कर पाते, वे ही भगवान् लक्ष्मीपतिके दोनों चरण इस विनाश करनेके लिये भैया बलरामजी तथा आपलोगोंके समय मुझे प्राप्त हुए हैं। अहो ! मेरा कितना सौभाग्य साथ मथुरा चलूँगा। वहाँ दानवराज दुरात्मा कंसको और है? ये दोनों चरण शरत्कालके खिले हुए कमलकी उसके साथ रहनेवाले समस्त राक्षसोंको मारकर इस भाँति सुन्दर हैं। भगवती लक्ष्मी अपने कोमल एवं संपन्युः ३३
SR No.034102
Book TitleSankshipta Padma Puran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUnknown
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages1001
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size73 MB
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