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________________ ५९८ ************ - अर्थयस्व हृषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् ******** ****** इस दूसरे पापीने देवताओंका पूजन किये बिना ही सदा अन्न भोजन किया है, इसने गुरु और ब्राह्मणोंको कभी दान नहीं दिया है; इसीलिये इसका नाम 'विदैवत' हुआ है। यह पूर्वजन्ममें 'हरिवीर' नामसे विख्यात राजा था। दस हजार गाँवोंपर इसका अधिकार था। यह रोष, अहंकार तथा नास्तिकताके कारण गुरुजनोंकी आज्ञाका उल्लङ्घन करनेमें तत्पर रहता था। प्रतिदिन पञ्च महायज्ञोंका अनुष्ठान किये बिना ही खाता और ब्राह्मणोकी निन्दा किया करता था। उसी पापकर्मके कारण यह बड़े-बड़े नरकोंका कष्ट भोगकर इस समय 'विदैवत' नामक प्रेत हुआ है। 'अवैशाख' नामक तीसरा प्रेत मैं हूँ। मैं पूर्वजन्ममें ब्राह्मण था । मध्यदेशमें मेरा जन्म हुआ था। मेरा नाम भी गौतम था और गोत्र भी मैं 'वासपुर गाँवमें निवास करता था। मैंने वैशाख मासमें भगवान् माधवको प्रसन्नताके उद्देश्यसे कभी स्नान नहीं किया। दान और हवन भी नहीं किया। विशेषतः वैशाख माससे सम्बन्ध रखनेवाला कोई कर्म नहीं किया। वैशाखमें भगवान् मधुसूदनका पूजन नहीं किया तथा विद्वान् पुरुषोंको दान आदिसे संतुष्ट नहीं किया। वैशाख मासकी एक भी पूर्णिमाको, जो पूर्ण फल प्रदान करनेवाली है, मैंने स्नान दान, शुभकर्म, पूजा तथा पुण्यके द्वारा उसके व्रतका पालन नहीं किया। इससे मेरा सारा वैदिक कर्म निष्फल हो गया। मैं 'अवैशाख' नामक प्रेत होकर सब ओर विचरता हूँ । [ संक्षिप्त पद्मपुराण छूटनेका उपाय है; परन्तु कृतप्रके लिये कोई प्रायश्चित्त गङ्गा आदि सम्पूर्ण तीर्थो में स्नान करता है तथा जो केवल नहीं है। * साधु पुरुषोंका सङ्ग करता है, उनमें साधु-सङ्ग करनेवाला पुरुष ही श्रेष्ठ है। अतः तुम मेरा उद्धार करो अथवा मेरा एक पुत्र है, जो धनशर्मा नामसे विख्यात है: स्वामिन्! तुम उसीके पास जाकर ये सब बातें समझाओ। हमारे लिये इतना परिश्रम करो। जो दूसरोंका कार्य उपस्थित होनेपर उसके लिये उद्योग करता है, उसे उसका पूरा फल मिलता है; वह यज्ञ, दान और शुभकर्मोंसे भी अधिक फलका भागी होता है। यमराज कहते हैं— ब्रह्मन् ! उस प्रेतका वचन सुनकर धनशर्माको बड़ा दुःख हुआ। उसने यह जान लिया कि ये मेरे पिता हैं, जो नरकमें पड़े हुए हैं। तब वह सर्वथा अपनी निन्दा करते हुए बोला । धनशर्माने कहा - स्वामिन्! मैं ही गौतमका - आपका पुत्र धनशर्मा हूँ। मैं आपके किसी काम न आया, मेरा जन्म निरर्थक है। जो पुत्र आलस्य छोड़कर अपने पिताका उद्धार नहीं करता, वह अपनेको पवित्र नहीं कर पाता। जो इस लोक और परलोकमें भी सुखका संतान - विस्तार कर सके, वही संतान या तनय माना गया है। इस लोकमें धर्मकी दृष्टिसे पुरुषके दो ही गुरु हैं—पिता और माता। इनमें भी पिता ही श्रेष्ठ है; क्योंकि सर्वत्र बीजकी ही प्रधानता देखी जाती है। पिताजी ! क्या करूँ ? कहाँ जाऊँ? कैसे आपको गति होगी ? मैं धर्मका तत्त्व नहीं जानता, केवल आपकी आज्ञाका पालन करूँगा। हम तीनोंके प्रेतयोनिमें पड़नेका जो कारण है, वह सब मैंने तुम्हें बता दिया। अब तुम हमलोगोंका पापसे उद्धार करो; क्योंकि तुम विप्र हो। ब्रह्मन् ! पुण्यात्मा साधु पुरुष तोर्थोंसे भी बढ़कर हैं। वे शरणमें आये हुए महान् पापियोंको भी नरकसे तार देते हैं। जो मनुष्य सदा ------.. प्रेत बोला- बेटा! घर जाओ और यमुनामें विधिपूर्वक स्नान करो। आजसे पाँचवें दिन वैशाखकी पूर्णिमा आनेवाली है, जो सब प्रकारकी उत्तम गति प्रदान करनेवाली तथा देवता और पितरोंके पूजनके लिये उपयुक्त है। उस दिन पितरोंके निमित्त भक्तिपूर्वक तिलमिश्रित जल, जलका घड़ा, अन्न और फल दान करना चाहिये। उस दिन जो श्राद्ध किया जाता है, वह * अतिपापिनि धूर्तच गुरुस्वाम्यहितेऽपि वा । निष्कृतिविद्यते विप्र कृतघ्नं नास्ति निष्कृतिः ।। ९४ । ६०) गङ्गादिसर्वतीर्थेषु यो नरः स्नाति सर्वदा यः करोति सतां स तयोः सत्सङ्गमो वरः ॥ (९४ । ७६)
SR No.034102
Book TitleSankshipta Padma Puran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUnknown
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages1001
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size73 MB
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