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________________ अर्थयस्व हषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् . [संक्षिप्त पयपुराण अपने-अपने नामसे एक-एक शिवलिङ्ग स्थापित किया। पूजित शिवलिङ्ग है, जिसके दर्शनमात्रसे मनुष्य फिर वे सभी लिङ्ग दर्शनमात्रसे मुक्ति प्रदान करनेवाले हैं। जन्म नहीं लेता। ढुण्डिराज गणेशके आगे मृकण्ड्वीश्वर शिवका दर्शन इस प्रकार शिवलिङ्गोंकी स्थापना करके वे सब करनेसे सम्पूर्ण कार्य सिद्ध होते हैं और काशीका निवास लोग एक वर्षतक काशीमें ठहरे रहे। बारम्बार उस भी सफल होता है। उस शिवलिङ्गके आगे सुवृत्ताद्वारा विचित्र एवं पवित्र क्षेत्रका दर्शन करनेसे उन्हें तृप्ति नहीं स्थापित सुवृत्तेश्वर नामक शिवलिङ्ग है। उसके दर्शनसे होती थी। मृकण्डु मुनि एक वर्षतक प्रतिदिन तीर्थयात्रा मनुष्य कभी विघ्न-बाधाओंसे आक्रान्त नहीं होता तथा करते रहे, किन्तु वहकि सम्पूर्ण तीर्थोका पार न पा सके; वह सदाचारी होता है। सुवृत्तेश्वरसे पूर्वदिशाकी ओर क्योंकि काशीपुरीमें पग-पगपर तीर्थ हैं। एक दिन कमलाद्वारा स्थापित उत्तम शिवलिङ्ग है, जिसके मृकण्डु मुनिकी माताएँ, जो पूर्ण ज्ञानसे सम्पन्न थीं, दर्शनमात्रसे मनुष्य सम्पूर्ण कामनाओंको प्राप्त कर लेता मणिकर्णिकाके जलमें दोपहरको सान करके है। दुण्डिराज गणेशकी देहलीके पास विमलाद्वारा शिवमन्दिरकी प्रदक्षिणा करने लगी। इससे परिश्रमके स्थापित विमलेश्वरका स्थान है। उस लिङ्गके दर्शनसे कारण उन्हें थकावट आ गयी और वे सब-की-सब निर्मल ज्ञानकी प्राप्ति होती है। विमलेश्वरसे ईशानकोणमें मरणासन्न होकर वहीं गिर पड़ीं। उस समय परम दयालु सुरसाद्वारा स्थापित सुरसेश्वर नामक शिवलिङ्ग है। उसके काशीपति भगवान् शिव बड़े वेगसे वहाँ आये और दर्शनसे मनुष्य देवताओंका साम्राज्य प्राप्त करके काशीमें अपने हाथोंसे स्नेहपूर्वक उन सबके मस्तक पकड़कर आकर मुक्त होगा। मणिकर्णिकासे पश्चिम मरुद्वतीद्वारा एक ही साथ कानों में प्रणव-मन्त्रका उच्चारण किया। मार्कण्डेयजीका जन्म, भगवान् शिवकी आराधनासे अमरत्व-प्राप्ति तथा _ मृत्युञ्जय-स्तोत्रका वर्णन वसिष्ठजी कहते हैं-राजन् ! महामना मृकण्डु वसिष्ठजीने कहा-राजन् ! सुनो, मैं मुनिने विधिपूर्वक माताओंके औदैहिक संस्कार करके मार्कण्डेयजीके जन्मका वृत्तान्त बतलाता हूँ। महामुनि दीर्घकालतक काशीमें ही निवास किया। भगवान् मृकण्डुके कोई सन्तान नहीं थी; अतः उन्होंने अपनी शङ्करके प्रसादसे उनकी धर्मपत्नी मरुद्वतीके गर्भसे एक पत्नीके साथ तपस्या और नियमोंका पालन करते हुए महातेजस्वी पुत्र उत्पन्न हुआ, जिसकी मार्कण्डेयके नामसे भगवान् शङ्करको सन्तुष्ट किया। सन्तुष्ट होनेपर प्रसिद्धि हुई । श्रीमान् मार्कण्डेय मुनिने तपस्यासे भगवान् पिनाकधारी शिवने पत्नीसहित मुनिसे कहा- 'मुने ! शिवको आराधना करके उनसे दीर्घायु पाकर अपनी मुझसे कोई वर माँगो' तब मुनिने यह वर माँगाआँखोंसे अनेकों बार प्रलयका दृश्य देखा। परमेश्वर ! आप मेरे स्तवनसे सन्तुष्ट हैं; इसलिये मैं दिलीपने पूछा-मुनिवर ! आपने पहले यह आपसे एक पुत्र चाहता हूँ। महेश्वर ! मुझे अबतक कोई बात बतायी थी कि मृकण्डु मुनिके मरुद्वतीसे कोई सन्तान नहीं हुई। सन्तान नहीं हुई, फिर भगवान् शिवके प्रसादसे उन्होंने भगवान् शङ्कर बोले-मुने ! क्या तुम उत्तम किस प्रकार पुत्र प्राप्त किया ? तथा वह पुत्र शङ्करजीके गुणोंसे होन चिरओवी पुत्र चाहते हो या केवल सोलह प्रसादसे कैसे दीर्घायु हुआ? इन सब बातोंको मैं वर्षकी आयुवाला एक ही गुणवान् एवं सर्वज्ञ पुत्र पानेकी विस्तारके साथ सुनना चाहता हूँ। आप बतानेकी इच्छा रखते हो? कृपा करें। उनके इस प्रकार पूछनेपर धर्मात्मा मृकण्डुने
SR No.034102
Book TitleSankshipta Padma Puran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUnknown
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages1001
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size73 MB
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