SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 305
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ भूमिखण्ड ] ******* • ययातिका प्रजावर्गसहित वैकुण्ठधाम गमन • -------- मोहित कर लिया। एक दिनकी बात है - कामनन्दिनी नहीं कि यह कार्य दूसरे मनुष्योंके लिये सर्वथा असाध्य है; पर आपके लिये तो साध्य ही है - यह मैं बिलकुल सच-सच कह रही हूँ। इसी उद्देश्यसे मैंने आपको अपना स्वामी बनाया था; आप सब प्रकारके शुभलक्षणोंसे सम्पन्न और सब धर्मोसे युक्त हैं। मैं जानती -आप भगवान् विष्णुके भक्त हैं, वैष्णवोंमें परम श्रेष्ठ हैं। जिसके ऊपर भगवान् विष्णुकी कृपा होती है, वह सर्वत्र जा सकता है। इसी आशासे मैंने आपको पतिरूपमें अङ्गीकार किया था। राजन् ! केवल आपने ही मृत्युलोकमें आकर सम्पूर्ण मनुष्योंको जरावस्थाकी पीड़ासे रहित और मृत्युहीन बनाया है। नरश्रेष्ठ! आपने इन्द्र और यमराजका विरोध करके मर्त्यलोकको रोग और पापसे शून्य कर दिया है। महाराज! आपके समान दूसरा कोई भी राजा नहीं है। बहुत से पुराणोंमें भी आपके जैसे राजाका वर्णन नहीं मिलता। मैं अच्छी तरह जानती हूँ, आप सब धर्मोक ज्ञाता हैं । अश्रुबिन्दुमतीने मोहित हुए राजा ययातिसे कहा'प्राणनाथ ! मेरे हृदयमें कुछ अभिलाषा जाग्रत् हुई है। आप मेरे उस मनोरथको पूर्ण कीजिये। पृथ्वीपते ! आप यज्ञोंमें प्रधान अश्वमेध यज्ञका अनुष्ठान करें।' राजा बोले- महाभागे ! एवमस्तु, मैं तुम्हारा प्रिय कार्य अवश्य करूंगा। ऐसा कहकर महाराजने राज्य-भोगसे निःस्पृह अपने पुत्र पूरुको बुलाया। पिताका आह्वान सुनकर पूरु आये उन्होंने भक्तिपूर्वक हाथ जोड़कर राजाके चरणोंमें प्रणाम किया और अश्रुबिन्दुमतीके युगल चरणोंमें भी मस्तक झुकाया। इसके बाद वे पितासे बोले'महाप्राज्ञ ! मैं आपका दास हूँ बताइये, मेरे लिये आपकी क्या आज्ञा है, मैं कौन-सा कार्य करूँ ?' राजाने कहा- बेटा! पुण्यात्मा द्विजों, ऋत्विजों और भूमिपालोंको आमन्त्रित करके तुम अश्वमेध यज्ञकी तैयारी करो। ३०५ महातेजस्वी पूरु बड़े धार्मिक थे। उन्होंने पिताके कहनेपर उनकी आज्ञाका पूर्णतया पालन किया। तत्पश्चात् राजा ययातिने काम कन्याके साथ यज्ञकी दीक्षा ली। उन्होंने अश्वमेध यज्ञमें ब्राह्मणों और दोनोंको अनेक प्रकारके दान दिये। यज्ञ समाप्त होनेपर महाराजने उस सुमुखीसे पूछा- 'बाले! और कोई कार्य भी, जो तुम्हें अत्यन्त प्रिय हो, बताओ मैं तुम्हारा कौन-सा कार्य करूँ ?' यह सुनकर उसने राजासे कहा'महाराज ! मैं इन्द्रलोक, ब्रह्मलोक, शिवलोक तथा विष्णुलोकका दर्शन करना चाहती हूँ।' राजा बोले – 'महाभागे ! तुमने जो प्रस्ताव किया है, वह इस समय मुझे असाध्य प्रतीत होता है वह तो पुण्य, दान, यज्ञ और तपस्यासे ही साध्य है। मैंने आजतक ऐसा कोई मनुष्य नहीं देखा या सुना है, जो पुण्यात्मा होकर भी मर्त्यलोकसे इस शरीरके साथ ही स्वर्गको गया हो। अतः सुन्दरी! तुम्हारा बताया हुआ कार्य मेरे लिये असाध्य है। प्रिये ! दूसरा कोई कार्य बताओ, उसे अवश्य पूर्ण करूंगा।' अश्रुबिन्दुमती बोली- राजन् ! इसमें सन्देह राजाने कहा - भद्रे ! तुम्हारा कहना सत्य है, मेरे लिये कोई साध्य असाध्यका प्रश्न नहीं है। जगदीश्वरकी कृपासे मुझे स्वर्गलोकमें सब कुछ सुलभ हैं। तथापि मैं स्वर्गमें जो नहीं जाता हूँ, इसका कारण सुनो। मेरे छोड़ देनेपर मानवलोककी सारी प्रजा मृत्युका शिकार हो जायगी, इसमें तनिक भी सन्देह नहीं हैं। सुमुखि ! यही सोचकर मैं स्वर्गमें नहीं चलता हूँ; यह मैंने तुम्हें सची बात बतायी है। रानी बोली- महाराज ! उन लोकोंको देखकर मैं फिर मर्त्यलोकमें लौट आऊँगी। इस समय उन्हें देखनेके लिये मेरे मनमें इतनी उत्सुकता हुई है, जिसकी कहीं तुलना नहीं है। राजाने कहा- देवि! तुमने जो कुछ कहा है, उसे निःसन्देह पूर्ण करूँगा । अपनी प्रिया अश्रुबिन्दुमतीसे यों कहकर राजा सोचने लगे- 'मत्स्य पानीके भीतर रहता है, किन्तु वह भी जालसे बँध जाता है। स्वर्गमें या पृथ्वीपर जो स्थावर आदि प्राणी हैं, उन सबपर कालका प्रभाव है। एकमात्र काल ही इस जगत्‌के रूपमें उपलब्ध होता है। कालसे
SR No.034102
Book TitleSankshipta Padma Puran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUnknown
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages1001
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size73 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy