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________________ १५६ अर्चयस्वषीकेश यदीच्छसि पर पदम्, [संक्षिप्त पद्यपुराण साथ समागम किया। चाण्डालीके गर्भसे उसने अनेकों करनेसे तेरे सारे पाप शीघ्र ही नष्ट हो जायँगे । पुण्यतीर्थों पुत्र और कन्याएँ उत्पन्न की तथा अपना कुटुम्ब छोड़कर और भगवान् श्रीगोविन्दके प्रभावसे पापोंका क्षय होगा वह चिरकालतक उसीके घरमें रहा। किन्तु घृणाके और तू ब्रह्मत्वको प्राप्त होगा। तात ! इस विषयमें हम कारण न तो वह दूसरा कोई अभक्ष्य पदार्थ खाता और तुझे एक प्राचीन इतिहास सुनाते हैं। पूर्वकालमें न कभी शराब ही पीता था। चाण्डाली उससे सदा ही विनतानन्दन गरुड़ जब अंडा फोड़कर बाहर निकले, तब कहा करती थी कि 'ये सब चीजें खाओ और शराब नवजात शिशुकी अवस्थामें ही उन्हें आहार ग्रहण पियो।' किन्तु वह उसे यही उत्तर देता–“प्रिये ! तुझे करनेकी इच्छा हुई। वे भूखसे व्याकुल होकर मातासे ऐसी गंदी बात नहीं कहनी चाहिये। शराबका तो नाम बोले-'माँ ! मुझे कुछ खानेको दो।' सुननेमात्रसे मुझे ओकाई आती है।' पर्वतके समान शरीरवाले महाबली गरुड़को एक दिनकी बात है-वह थका-माँदा होनेके देखकर परम सौभाग्यवती माता विनताके मनमें बड़ा हर्ष कारण दिनमें भी घरपर ही सो रहा था। चाण्डालीने हुआ। वे अपने पुत्रसे बोलीं-'बेटा ! मुझमें तेरी भूख शराब उठायी और हँसकर उसके मुँहमें डाल दी। मिटानेकी शक्ति नहीं है। तेरे पिता धर्मात्मा कश्यप मदिराकी बूंद पड़ते ही उस ब्राह्मणके मुँहसे अग्नि साक्षात् ब्रह्माजीके समान तेजस्वी हैं। वे सोन नदीके प्रज्वलित हो उठी; उसकी ज्वालाने फैलकर कुटुम्बसहित उत्तर तटपर तपस्या करते हैं। वहीं जा और अपने पितासे उस चाण्डालीको जलाकर भस्म कर दिया तथा उसके इच्छानुसार भोजनके विषयमें परामर्श कर । तात ! उनके घरको भी फूंक डाला। उस समय वह ब्राह्मण 'हाय ! उपदेशसे तेरी भूख शान्त हो जायगी।' हाय !' करता हुआ उठा और बिलख-बिलखकर रोने ऋषि कहते हैं-माताकी बात सुनकर मनके लगा। विलापके बाद उसने पूछना आरम्भ किया- समान वेगवाले महाबली गरुड़ एक ही मुहूर्तमें पिताके 'कहाँसे आग प्रकट हुई और कैसे मेरा घर जला?' तब समीप जा पहुँचे। वहाँ प्रज्वलित अग्निके समान तेजस्वी आकाशवाणीने उससे कहा-'तुम्हारे ब्रह्मतेजने अपने पिता मुनिवर कश्यपजीको देखकर उन्हें मस्तक चाण्डालीके घरमें आग लगायी है।' इसके बाद उसने झुका प्रणाम किया और इस प्रकार कहा-'प्रभो ! मैं ब्राह्मणके मुँहमें शराब डालने आदिका ठीक-ठीक आपका पुत्र हूँ और आहारकी इच्छासे आपके पास वृत्तान्त कह सुनाया। यह सब सुनकर ब्राह्मणको बड़ा आया हूँ। भूख बहुत सता रही है, कृपा करके मुझे कुछ विस्मय हुआ। उसने इस विषयपर भलीभाँति विचार भोजन दीजिये। करके अपने-आपको उपदेश देनेके लिये यह बात कश्यपजीने कहा-वत्स! उधर समुद्रके कही-'विप्र ! तेरा तेज नष्ट हो गया, अब तू पुनः किनारे विशाल हाथी और कछुआ रहते हैं। वे दोनों धर्मका आचरण कर।' तदनन्तर उस ब्राह्मणने बड़े-बड़े बहुत बड़े जीव हैं। उनमें अपार बल है। वे एकमुनियोंके पास जाकर उनसे अपने हितकी बात पूछी। दूसरेको मारनेकी घातमें लगे हुए हैं। तू शीघ्र ही उनके मुनियोंने कहा-'तू दान-धर्मका आचरण कर । ब्राह्मण पास जा, उनसे तेरी भूख मिट सकती है। नियम और व्रतोंके द्वारा सब पापोंसे छूट जाते हैं। अतः पिताकी बात सुनकर महान् वेगशाली और विशाल तू भी अपनी पवित्रताके लिये शास्त्रोक्त नियमोका आकारवाले गरुड़ उड़कर वहाँ गये तथा उन दोनोंको आचरण कर। चान्द्रायण, कृच्छ्र, तप्तकृच्छ्र, प्राजापत्य नखोंसे विदीर्ण करके चोच और पंजोंमें लेकर विद्युत्के तथा दिव्य व्रतोंका बारम्बार अनुष्ठान कर । ये व्रत समस्त समान वेगसे आकाशमें उड़ चले। उस समय मन्दराचल दोषोंका तत्काल शोषण कर लेते हैं। तू पवित्र तीर्थोंमें आदि पर्वत उन्हें धारण नहीं कर पाते थे। तब वे जा और वहाँ भगवान् श्रीविष्णुको आराधना कर । ऐसा वायुवेगसे दो लाख योजन आगे जाकर एक जामुनके
SR No.034102
Book TitleSankshipta Padma Puran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUnknown
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages1001
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size73 MB
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