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________________ ६०४ अर्चयस्व हषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् . [संक्षिप्त पद्मपुराण आगकी आँच पाकर पिघल जाता है, उसी प्रकार साधु किया है, वे ही परलोकमें आनेपर घोर नरकोंमें पकाये पुरुषोंका हृदय भी दूसरोंके संतापसे संतप्त होकर द्रवित जाते हैं। जिनका शील-स्वभाव दूषित है, जो दुराचारी, हो उठता है। उस समय राजाने दूतोंसे कहा। व्यवहारमें निन्दित, दूसरोंकी बुराई करनेवाले एवं पापी राजा बोले-इन्हें देखकर मुझे बड़ी व्यथा हो हैं, वे ही नरकोंमें पड़ते हैं। जो पापी अपने मर्मभेदी रही है। मैं इन व्यथित प्राणियोंको छोड़कर जाना नहीं वचनोंसे दूसरोका हृदय विदीर्ण कर डालते हैं तथा जो चाहता। मेरी समझमें सबसे बड़ा पापो वही है, जो परायी स्त्रियोंके साथ विहार करते हैं, वे नरकोंमें पकाये समर्थ होते हुए भी वेदनाग्रस्त जीवोंका शोक दूर न कर जाते हैं। महाभाग भूपाल ! आओ, अब भगवान्के सके। यदि मेरे शरीरको छूकर बहनेवाली वायुके स्पर्शसे धामको चलें । तुम पुण्यवान् हो, अतः अब तुम्हारा यहाँ ये जीव सुखी हुए हैं तो आपलोग मुझे उसी स्थानपर ठहरना उचित नहीं है। ले चलिये; क्योंकि जो चन्दनवृक्षकी भाँत दूसरोंके ताप राजाने कहा-विष्णुदूतगण ! यदि मैं पुण्यात्मा दूर करके उन्हें आह्लादित करते हैं तथा जो परोपकारके हूँ तो इस महाभयंकर यातनामार्गमें कैसे लाया गया? लिये स्वयं कष्ट उठाते हैं, वे ही पुण्यात्मा है। संसारमें मैने कौन-सा पाप किया है तथा किस पुण्यके प्रभावसे वे ही संत हैं, जो दूसरोंके दुःखोंका नाश करते हैं तथा मैं विष्णुधामको जाऊँगा? आपलोग मेरे इस संशयका पीड़ित जीवोंकी पीड़ा दूर करनेके लिये जिन्होंने अपने निवारण करें। प्राणोंको तिनकेके समान निछावर कर दिया है। जो दूत बोले-राजन् ! तुम्हारा मन कामके अधीन मनुष्य सदा दूसरोंकी भलाईके लिये उद्यत रहते हैं, हो रहा था; इसलिये तुमने कोई पुण्य, यज्ञानुष्ठान अथवा उन्होंने ही इस पृथ्वीको धारण कर रखा है। जहाँ सदा यज्ञावशिष्ट अन्नका भोजन नहीं किया है। इसीलिये तुम्हें अपने मनको ही सुख मिलता है, वह स्वर्ग भी नरकके इस मार्गसे लाया गया है। किन्तु लगातार तीन वर्षांतक ही समान है; अतः साधु पुरुष सदा दूसरोंके सुखसे ही तुमने अपने गुरुकी प्रेरणासे वैशाख मासमें विधिपूर्वक सुखी होते हैं। यहाँ नरकमें गिरना अच्छा, प्राणोंसे प्रातःस्नान किया है तथा महापापों और अतिपापोंकी वियोग हो जाना भी अच्छ; किन्तु पीड़ित जीवोंकी राशिका विनाश करनेवाले भक्तवत्सल, विश्वेश्वर भगवान् पीड़ा दूर किये बिना एक क्षण भी सुख भोगना अच्छा मधुसूदनकी भक्तिपूर्वक पूजा की है। यह सब पुण्योंका नहीं है।* सार है। केवल इस एक ही पुण्यसे तुम देवताओद्वारा दूत बोले-राजन् ! पापी पुरुष अपने कर्मोका ही पूजित होकर श्रीविष्णुधामको ले जाये जा रहे हो। फल भोगते हुए भयंकर नरक पकाये जाते हैं। जिन्होंने नरेश्वर ! जैसे एक ही चिनगारी पड़ जानेसे तिनकोंकी दान, होम अथवा पुण्यतीर्थमें लान नहीं किया है; राशि भस्म हो जाती है, उसी प्रकार वैशाखमें प्रातःस्नान मनुष्योंका उपकार तथा कोई उत्तम पुण्य नहीं किया है; करनेसे पापराशिका विनाश हो जाता है। जो वैशाखमें यज्ञ, तपस्या और प्रसन्नतापूर्वक भगवत्रामोंका जप नहीं शास्त्रोक्त नियमोंसे युक्त होकर स्नान करता है, वह * परतापच्छिदो ये तु चन्दना इव चन्दनाः । परोपकृतये ये तु पोयते कृतिनो हि ते॥ सन्चस्त एव ये लोके परदुःखविदारणाः । आतांनामातिनाशार्थ प्राणा येषां तृणोपमाः ॥ तैरियं धार्यते भूमिनरैः परहितोद्यतैः । मनसो यत्सख नित्यं स स्वों नरकोपमः ।। तस्मात्परसुखेनैव साधवः सुखिनः सदा । वरं निरयपातोऽत्र वरं प्राणषियोजनम्॥ ने पुनः क्षणमाानाभार्तिनाशमृते सुखम्॥ (२७।३२-३५)
SR No.034102
Book TitleSankshipta Padma Puran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUnknown
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages1001
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size73 MB
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