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________________ पातालखण्ड ] . गुप्तचरोसे अपवादकी बात सुनकर सीताको वनमें छोड़ आनेका आदेश . ५१७ उस समय मुझे बड़ा क्रोध हुआ, किन्तु सहसा आपका बड़ा भय हुआ। उन्होंने महाराजसे कहा-'स्वामिन् ! आदेश स्मरण हो आया [इसलिये मैं उसे दण्ड न दे सुखसे आराधनाके योग्य आपका यह सुन्दर मुख इस सका]; अब यदि आप आज्ञा दें तो मैं उसे मार गिराऊँ। समय नीचेकी ओर क्यों झुका हुआ है? यह आँसुओंसे यह बात न कहनेयोग्य और न्यायके विपरीत थी, तो भी भींगा कैसे दिखायी दे रहा है? मुझे इसका पूरा-पूरा मैंने आपके आग्रहसे कह डाली है। अब इस विषयमें यथार्थ कारण बताइये और आज्ञा दीजिये, मैं क्या महाराज ही निर्णायक है; जो उचित कर्तव्य हो, उसका करूँ ?' भाई भरतने जब गद्गद वाणीसे इस प्रकार विचार करें। कहा, तब धर्मात्मा श्रीरामचन्द्रजी बोले-'प्रिय बन्धु ! गुप्तचरका यह वाक्य, जिसका एक-एक अक्षर इस पृथ्वीपर उन्हीं मनुष्योंका जीवन उत्तम है, जिनके महाभयानक वज्रके समान मर्मपर आघात करनेवाला सुयशका विस्तार हो रहा हो। अपकीर्तिके मारे हुए था, सुनकर श्रीरामचन्द्रजी बारम्बार उच्छ्वास खींचते हुए मनुष्योंका जीवन तो मरे हुएके ही समान है। आज उन सब दूतोंसे बोले-'अब तुमलोग जाओ और सम्पूर्ण संसारमें विस्तृत मेरी कीर्तिमयी गङ्गा कलुषित हो भरतको मेरे पास भेज दो।' वे दूत दुःखी होकर तुरंत ही गयी। इस नगरमें रहनेवाले एक धोबीने आज भरतजीके भवनमें गये और वहाँ उन्होंने श्रीरामचन्द्रजीका जानकीजीके सम्बन्धको लेकर कुछ निन्दाकी बात कह संदेश कह सुनाया। श्रीरघुनाथजीका संदेश सुनकर डाली है; इसलिये भाई! बताओ, अब मैं क्या करूं? बुद्धिमान् भरतजी बड़ी उतावलीके साथ राजसभामें गये क्या आज अपने शरीरको त्याग दूं या अपनी धर्मपत्नी और वहाँ द्वारपालसे बोले-'मेरे भ्राता कृपानिधान जानकीका ही परित्याग कर दूं? दोनोंके लिये मुझे क्या श्रीरामचन्द्रजी कहाँ हैं?' द्वारपालने एक रलनिर्मित करना चाहिये, इस बातको ठीक-ठीक बताओ।' । मनोहर गृहकी ओर संकेत किया। भरतजी वहाँ जा भरतजीने पूछा-आर्य ! कौन है यह धोबी तथा पहुँचे। श्रीरामचन्द्रजीको विकल देखकर उनके मनमें इसने कौन-सी निन्दाकी बात कही है? तव श्रीरामचन्द्रजीने धोबीके मुँहसे निकली हुई सारी बातें, जो दूतके द्वारा सुनी थीं, महात्मा भरतसे कह सुनायीं। उन्हें सुनकर भरतने दुःख और शोकमें पड़े हुए भाई श्रीरामसे कहा-'वीरोंद्वारा सुपूजित जानकीदेवी लङ्कामें अग्नि-परीक्षाद्वारा शुद्ध प्रमाणित हो चुकी हैं। ब्रह्माजीने भी इन्हें शुद्ध बतलाया है तथा पूज्य पिता स्वर्गीय महाराज दशरथजीने भी इस बातका समर्थन किया है। यह सब होते हुए भी केवल एक धोबीके कहनेसे विश्ववन्दित सीताका परित्याग कैसे किया जा सकता है? ब्रह्मादि देवताओंने भी आपकी कीर्तिका गान किया है, वह इस समय सारे जगत्को पवित्र कर रही है। ऐसी पावन कीर्ति आज केवल एक धोबीके कहनेसे कलुषित या कलङ्कित कैसे हो जायगी? भला, आप अपने इस कल्याणमय विग्रहका परित्याग क्यों करना चाहते हैं। आप ही हमारे दुःखोंको दूर करनेवाले हैं। आपके बिना तो हम सब लोग आज ही मर जायेंगे।
SR No.034102
Book TitleSankshipta Padma Puran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUnknown
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages1001
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size73 MB
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