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________________ उत्तरखण्ड ] . माघस्नानकी महिमा, शूकरक्षेत्रका माहात्म्य, मासोपवास-प्रतकी विधि . प्रसङ्गतः माघस्नानकी महिमा, शूकरक्षेत्रका माहात्म्य तथा मासोपवास-व्रतकी विधिका वर्णन महादेवजी कहते हैं-भक्तप्रवर कार्तिकेय ! द्वीपोसहित पृथ्वीका राज्य प्राप्त किया था। अब माघस्रानका माहात्म्य सुनो । महामते ! इस संसारमें कार्तिकेयने कहा-भगवन् ! मैं व्रतोंमें उत्तम तुम्हारे समान विष्णु-भक्त पुरुष नहीं हैं। चक्रतीर्थमें मासोपवास-व्रतका वर्णन सुनना चाहता हूँ। साथ ही श्रीहरिका और मथुरामें श्रीकृष्णका दर्शन करनेसे उसकी विधि एवं यथोचित फलको भी श्रवण करना मनुष्यको जो फल मिलता है, वही माघ-मासमें केवल चाहता हैं। स्नान करनेसे मिल जाता है। जो जितेन्द्रिय, शान्तचित्त महादेवजी बोले-बेटा ! तुम्हारा विचार बड़ा और सदाचारयुक्त होकर माघ मासमें स्नान करता है, वह उत्तम है। तुमने जो कुछ पूछा है, वह सब बताता हूँ। फिर कभी संसार-बन्धनमें नहीं पड़ता। जैसे देवताओंमें भगवान् विष्णु, तपनेवालोंमें सूर्य, इतनी कथा सुनाकर भगवान् श्रीकृष्णने पर्वतोंमें मेरु, पक्षियोंमें गरुड़, तीर्थोमे गङ्गा तथा कहा-सत्यभामा ! अब मैं तुम्हारे सामने शूकरक्षेत्रके प्रजाओमें वैश्य श्रेष्ठ है, उसी प्रकार सब व्रतोंमें माहात्म्यका वर्णन करूँगा, जिसके विज्ञानमात्रसे मेरा मासोपवास-व्रत श्रेष्ठ माना गया है। सम्पूर्ण व्रतोंसे, सान्निध्य प्राप्त होता है। पाँच योजन विस्तृत शूकरक्षेत्र समस्त तीर्थोसे तथा सब प्रकारके दानोंसे जो पुण्य प्राप्त मेरा मन्दिर (निवासस्थान) है। देवि ! जो इसमें निवास होता है, वह सब मासोपवास करनेवालेको मिल जाता करता है, वह गदहा हो तो भी चतुर्भुज स्वरूपको प्राप्त है। वैष्णवयज्ञके उद्देश्यसे भगवान् जनार्दनकी पूजा होता है। तीन हजार तीन सौ तीन हाथ मेरे मन्दिरका करनेके पश्चात् गुरुकी आज्ञा लेकर मासोपवास-व्रत परिमाण माना गया है। देवि ! जो अन्य स्थानों में साठ करना चाहिये। शास्त्रोक्त जितने भी वैष्णवव्रत हैं, उन हजार वर्षातक तपस्या करता है, वह मनुष्य शूकरक्षेत्रमें सबको तथा द्वादशीके पवित्र व्रतको करनेके पश्चात् आधे पहरतक तप करनेपर ही उतनी तपस्याका फल मासोपवास-व्रत करना उचित है। अतिकृच्छ्र, पराक प्राप्त कर लेता है। कुरुक्षेत्रके सत्रिहति' नामक तीर्थमें और चान्द्रायण-व्रतोंका अनुष्ठान करके गुरु और सूर्यग्रहणके समय तुला-पुरुषके दानसे जो फल बताया ब्राह्मणकी आज्ञासे मासोपवास-व्रत करे। आश्विन गया है, वह काशीमें दसगुना, त्रिवेणीमें सौगुना और मासके शुक्लपक्षको एकादशीको उपवास करके तीस गङ्गा-सागर-संगममें सहस्रगुना कहा गया है; किन्तु मेरे दिनोंके लिये इस व्रतको ग्रहण करे। जो मनुष्य भगवान् निवासभूत शूकरक्षेत्रमें उसका फल अनन्तगुना समझना वासुदेवकी पूजा करके कार्तिक मासभर उपवास करता चाहिये। भामिनि ! अन्य तीथोंमें उत्तम विधानके साथ है, वह मोक्षफलका भागी होता है। भगवान्के मन्दिरमें जो लाखों दान दिये जाते हैं, शूकर क्षेत्रमें एक ही दानसे जाकर तीनों समय भक्तिपूर्वक सुन्दर मालती, उनके समान फल प्राप्त हो जाता है। शूकर, क्षेत्र, त्रिवेणी नील कमल, पा, सुगन्धित कमल, केशर, खस, कपूर, और गङ्गा-सागर-संगममें एक बार ही स्रान करनेसे उत्तम चन्दन, नैवेद्य और धूप-दीप आदिसे श्रीजनार्दनका मनुष्यकी ब्रह्महत्या दूर हो जाती है। पूर्वकालमें राजा पूजन करे । मन, वाणी और क्रियाद्वारा श्रीगरुडध्वजकी अलर्कने शूकरक्षेत्रका माहात्म्य श्रवण करके सातो आराधनामें लगा रहे । स्त्री, पुरुष, विधवा-जो कोई भी १-महाभारत युद्धका स्थान ही सत्रिहति' कहलाता है। इसोको कहीं-कहीं 'विनशन-तीर्थ भी कहा गया है।
SR No.034102
Book TitleSankshipta Padma Puran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUnknown
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages1001
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size73 MB
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