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________________ ४६८ अर्थयस्व हृषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् पैदल ही चल दिये। धर्मज्ञ महाराजने युद्धके लिये उद्यत हुए सुकेतु, विचित्र और दमनको बुलाकर लड़नेसे रोका और कहा - " अब शीघ्र ही युद्ध बंद करो, दमन! यह बहुत बड़ा अन्याय हुआ, जो तुमने भगवान् श्रीरामके तेजस्वी अश्वको पकड़ लिया। ये श्रीरामचन्द्रजी कार्य और कारणसे परे साक्षात् परब्रह्म हैं, चराचर जगत्के स्वामी हैं, मानव शरीर धारण करनेपर भी वे वास्तवमें मनुष्य नहीं हैं। इन्हें इस रूपमें जान लेना ही ब्रह्मज्ञान है। इस तत्त्वको मैं अभी समझ पाया हूँ। मेरे पापहीन पुत्रो ! पूर्वकालमें असिताङ्गमुनि के शापसे मेरा ज्ञानरूपी धन नष्ट हो गया था। [ वह प्रसङ्ग मैं सुना रहा हूँ-] प्राचीन समयकी बात है, मैं तत्त्वज्ञान प्राप्त करनेकी इच्छासे तीर्थयात्रा के लिये निकला था। उस यात्रामें मुझे अनेकों धर्मज्ञ ऋषि महर्षियोंके दर्शन हुए। एक दिन ज्ञान-प्राप्तिकी इच्छासे मैं असिताङ्गमुनिकी सेवामें गया। उस समय उन ब्रह्मर्षिने मेरे ऊपर कृपा करके इस प्रकार उपदेश देना आरम्भ किया— 'वे जो अयोध्यापुरीके स्वामी महाराज श्रीरामचन्द्रजी हैं, उन्हींका नाम परब्रह्म है तथा जो उनकी धर्मपत्री जनककिशोरी भगवती सीता हैं, वें भगवान्‌की साक्षात् चिन्मयी शक्ति मानी गयी हैं। दुस्तर एवं अपार संसार सागरसे पार जानेकी इच्छा रखनेवाले योगीजन यम-नियम आदि साधनोंके द्वारा साक्षात् श्रीरघुनाथजीकी ही उपासना करते हैं। वे ही ध्वजामें गरुड़का चिह्न धारण करनेवाले भगवान् नारायण हैं। स्मरण करनेमात्रसे ही वे बड़े-बड़े पापोंको हर लेते हैं। जो विद्वान् उनकी उपासना करेगा, वह इस संसार समुद्रसे तर जायगा।' मुनिकी बात सुनकर मैंने उनका उपहास करते हुए कहा-' - राम कौन बड़े शक्तिशाली हैं। ये तो एक साधारण मनुष्य हैं! इसी प्रकार हर्ष और शोकमें डूबी हुई ये जानकीदेवी भी क्या चीज हैं? जो अजन्मा है, उसका जन्म कैसा ? तथा जो अकर्ता है, उसके लिये संसारमें आनेका क्या प्रयोजन है ? मुने! मुझे तो आप उस तत्त्वत्का उपदेश दीजिये, जो जन्म, दुःख और जरावस्थासे परे हो।' मेरे ऐसा कहनेपर उन विद्वान् मुनीश्वरने मुझे शाप दे दिया। वे बोले – 'ओ [ संक्षिप्त पद्मपुराण नीच ! तू श्रीरघुनाथजीके स्वरूपको नहीं जानता तो भी मेरे कथनका प्रतिवाद कर रहा है, इन भगवान् श्रीरामचन्द्रजीकी निन्दा करता है और ये साधारण मनुष्य हैं ऐसा कहकर उनका उपहास कर रहा है; इसलिये तू तत्त्वज्ञानसे शून्य होकर केवल पेट पालनेमें लगा रहेगा।' यह सुनकर मैंने महर्षिके चरण पकड़ लिये और अपने प्रति उनके हृदयमें दयाका सञ्चार किया। वे करुणाके सागर थे, मेरी प्रार्थनासे पिघल गये और बोले— 'राजन्! जब तुम श्रीरघुनाथजीके यज्ञमें विघ्न डालोगे और हनुमानजी वेगपूर्वक तुम्हारे ऊपर चरण-प्रहार करेंगे, उसी समय तुम्हें भगवान् श्रीरामके स्वरूपका ज्ञान होगा; अन्यथा अपनी बुद्धिसे तुम उन्हें नहीं जान सकोगे।' मुनिवर असिताङ्गने पहले ही जो बात बतायी थी, उसका इस समय मुझे प्रत्यक्ष अनुभव हो रहा है। अतः अब मेरे महाबली सैनिक रघुनाथजीके शोभायमान अश्वको ले आवें। उसके साथ ही मैं बहुत सा धन-वस्त्र तथा यह राज्य भी भगवान्‌को अर्पण कर दूंगा। वह यश अत्यन्त पुण्य प्रदान करनेवाला है। उसमें श्रीरामचन्द्रजीका दर्शन करके मैं कृतार्थ हो जाऊँगा, इसलिये घोड़ेसहित अपना सर्वस्व समर्पण कर देना ही मुझे अच्छा जान पड़ता है।" उत्तम रीति से युद्ध करनेवाले सुबाहुपुत्रोंने पिताकी बात सुनकर बड़ा हर्ष प्रकट किया। वे महाराज सुबाहुको श्रीरघुनाथजीके दर्शनके लिये उत्कण्ठित देखकर उनसे बोले – 'राजन्! हमलोग आपके चरणोंके सिवा और कुछ नहीं जानते, अतः आपके हृदयमें जो शुभ सङ्कल्प प्रकट हुआ है, वह शीघ्र ही पूर्ण होना चाहिये। सफेद चैवरसे सुशोभित, रत्न और माला आदिकी शोभासे सम्पन्न तथा चन्दन आदिके द्वारा चर्चित यह यज्ञ सम्बन्धी अश्व शत्रुघ्नजीके पास ले जाइये। आपकी आज्ञाके अनुसार उपयोग होनेमें ही इस राज्यकी सार्थकता है। स्वामिन्! प्रचुर समृद्धियोंसे भरे हुए कोष, हाथी, घोड़े, वस्त्र, रत्न, मोती तथा मूँगे आदि द्रव्य लाखोंकी संख्यामें प्रस्तुत हैं। इनके सिवा और भी जो-जो महान् अभ्युदयकी वस्तुएँ हैं, उन सबको
SR No.034102
Book TitleSankshipta Padma Puran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUnknown
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages1001
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size73 MB
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