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________________ २६० . अर्चयस्व बीकेशं यदीच्छसि परं पदम् . [संक्षिप्त पयपुराण खाना-पीना और मौज उड़ाना, यही इस संसारका फल तेज, फल, यश, कीर्ति और उत्तम गुण प्राप्त करती है। है। मनुष्यके मर जानेपर कौन इस फलका उपभोग पतिकी प्रसन्नतासे उसे सब कुछ मिल जाता है, इसमें करता है और कौन उसे देखने आता है। तनिक भी सन्देह नहीं है । जो स्त्री पतिके रहते हुए उसकी सुकला बोली-सखियो ! तुमलोगोंने जो बात सेवाको छोड़कर दूसरे किसी धर्मका अनुष्ठान करती है, कही है, वह वेदोंको मान्य नहीं है। जो नारी अपने उसका वह कार्य निष्फल होता है तथा लोकमें वह स्वामीसे पृथक् होकर सदा अकेली रहती है, उसे पापिनी व्यभिचारिणी कही जाती है।* नारियोंका यौवन, रूप समझा जाता है। श्रेष्ठ पुरुष उसका आदर नहीं करते। और जन्म-सब कुछ पतिके लिये होते हैं; इस वेदोंमें सदा यही बात देखी गयी है कि पतिके साथ भूमण्डलमें नारीकी प्रत्येक वस्तु उसके पतिकी नारीका सम्बन्ध पुण्यके संसर्गसे ही होता है और किसी आवश्यकता-पूर्तिका ही साधन है। जब स्त्री पतिहीन हो कारणसे नहीं। [अतः उसे सदा पतिके ही साथ रहना जाती है, तब उसे भूतलपर सुख, रूप, यश, कीर्ति और चाहिये।] शास्त्रोका वचन है कि पति ही सदा नारियोंके पुत्र कहाँ मिलते हैं। वह तो संसारमें परम दुर्भाग्य और लिये तीर्थ है। इसलिये स्त्रीको उचित है कि वह सच्चे महान् दुःख भोगती है। पापका भोग ही उसके हिस्से में भावसे पति-सेवामें प्रवृत्त होकर प्रतिदिन मन, वाणी, पड़ता है। उसे सदा दुःखमय आचारका पालन करना शरीर और क्रियाद्वारा पतिका ही आवाहन करे और सदा पड़ता है। पतिके संतुष्ट रहनेपर समस्त देवता स्त्रीसे संतुष्ट पतिका ही पूजन करे। पति स्त्रीका दक्षिण अङ्ग है। रहते हैं। ऋषि और मनुष्य भी प्रसन्न रहते हैं। राजन् ! उसका वाम पार्श्व ही पत्नीके लिये महान् तीर्थ है । गृहस्थ पति ही स्त्रीका स्वामी, पति ही गुरु, पति ही देवताओंनारी पतिके वाम भागमें बैठकर जो दान-पुण्य और यज्ञ सहित उसका इष्टदेव और पति ही तीर्थ एवं पुण्य है। करती है, उसका बहुत बड़ा फल बताया गया है; पतिके बाहर चले जानेपर यदि स्त्री पार करती है तो काशीको गङ्गा, पुष्कर तीर्थ, द्वारकापुरी, उज्जैन तथा उसका रूप, वर्ण-सब कुछ भाररूप हो जाता है। केदार नामसे प्रसिद्ध महादेवजीके तीर्थमे स्नान करनेसे पृथ्वीपर लोग उसे देखकर कहते हैं कि यह निश्चय ही भी वैसा फल नहीं मिल सकता। यदि स्त्री अपने पतिको व्यभिचारिणी है, इसलिये किसी भी पलीको अपने साथ लिये बिना ही कोई यज्ञ करती है, तो उसे उसका सनातन धर्मका त्याग नहीं करना चाहिये । सखियो ! इस फल नहीं मिलता। पतिव्रता स्त्री उत्तम सुख, पुत्रका विषयमें एक पुराना इतिहास सुना जाता है, जिसमें रानी सौभाग्य, सान, पान, वस्त्र, आभूषण, सौभाग्य, रूप, सुदेवाके पापनाशक एवं पवित्र चरित्रका वर्णन है। * स्वभर्तुर्वा पृथग्भूता तिष्ठत्येका सदैव हि । पापरूपा भवेत्रारी तो न मन्यन्ति सज्जनाः ॥ भतुंः साद्धं सदा सख्यो दृष्टो वेदेषु सर्वदा । सम्बन्यः पुण्यसंसर्गाज्जायते नान्यकारणात् ॥ नारीणां च सदा तीर्थ भर्ती शालेषु पठ्यते । यमेवावाहयेत्रित्य वाचा कायेन कर्मभिः । मनसा पूजयेन्नित्यं सत्यभावेन तत्परा । एतत्याचे महातीर्थ दक्षिणाझं सदैव हि॥ तमाश्रित्य यदा नारी गृहस्था परिवर्तते । यजते दानपुण्यैश्च तस्य दानस्य यत्फलम्॥ वाराणस्यां च गायां यत्फलं न च पुष्करे। द्वारकायां न चावत्या केदारे शशिभूषणे॥ लभते नैव सा नारी यजमाना सदा किल । तादृशं फलमेवं सा न प्राप्नोति कदा सखि ॥ . सुसुख पुत्रसौभाग्य स्नान दानं च भूषणम्। वस्त्रालंकारसौभाग्य रूपं तेजः फलं सदा ।। यशः कीर्तिमवाप्नोति गुणं च वरवर्णिनि । भर्तुः प्रसादाच सर्व लभते नात्र संशयः ॥ विद्यमाने यदा कान्ते अन्यधर्म करोति या। निष्फलं जायते तस्याः पुंथली परिकथ्यते ॥ (४१।६०-६९) * भर्ता नायो गुरुर्भा देवता दैवतैः सह । भर्ता तीर्थच पुण्यश्च नारीणां नृपनन्दन ॥ (४१।७५)
SR No.034102
Book TitleSankshipta Padma Puran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUnknown
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages1001
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size73 MB
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