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________________ २२० • अर्चयस्व हृषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् . [संक्षिप्त पद्मपुराण उन सब विनोंका नाश कर दिया। उनके उपस्थित किये क्रोधसे लाल हो रही थीं। [किन्तु आपके आनेसे मेरा हुए भयंकर विनोंका विचार करके महातेजस्वी भाव बदल गया।] देवेन्द्र ! आप आकर मुझे वर देना विष्णुशर्माको बड़ा क्रोध हुआ। उन्होंने सोचा-'मैं चाहते हैं तो अमृत दीजिये; साथ ही पिताके चरणोंमें इन्द्रलोकसे इन्द्रको गिरा दूंगा और देवताओंकी रक्षाके अविचल भक्ति प्रदान कीजिये।' लिये दूसरा इन्द्र बनाऊँगा।' वे इस प्रकार विचार कर ही इस प्रकार बातचीत होनेपर इन्द्रने प्रसन्न चित्तसे रहे थे कि देवराज इन्द्र वहाँ आ पहुँचे और बोले- ब्राह्मणको अमृतसे भरा घड़ा लाकर दिया तथा वरदान 'महाप्राज्ञ विप्र ! तपस्या, नियम, इन्द्रियसंयम, सत्य और देते हुए कहा-'विप्रवर ! अपने पिताके प्रति तुम्हारे शौचके द्वारा तुम्हारी समानता करनेवाला दूसरा कोई नहीं हृदयमें सदा अविचल भक्ति बनी रहेगी।' यों कहकर है। तुम्हारी इस पितृभक्तिसे मैं देवताओसहित परास्त हो इन्द्रने ब्राह्मणको विदा किया। तदनन्तर विष्णुशर्मा अपने गया। साधुश्रेष्ठ ! तुम मेरे सारे अपराध क्षमा करो और पिताके पास जाकर बोले-'तात ! मैं इन्द्रके यहाँसे मुझसे कोई वर माँगो। तुम्हारा कल्याण हो। तुम्हारे अमृत ले आया हूँ। इसका सेवन करके आप सदाके माँगनेपर मैं दुर्लभ-से-दुर्लभ वर भी दे दूँगा।' यह लिये नीरोग हो जाइये।' शिवशर्मा पुत्रकी यह बात सुनकर विष्णुशनि देवराजसे कहा-'आपको महात्मा सुनकर बहुत सन्तुष्ट हुए और सब पुत्रोंको बुलाकर ब्राह्मणोंके तेजका विनाश करनेकी कभी चेष्टा नहीं करनी कहने लगे-'तुम सब लोग पितृभक्तिसे युक्त और मेरी चाहिये; क्योंकि यदि श्रेष्ठ ब्राह्मण क्रोधमे भर जायें तो आज्ञाके पालक हो । अतः प्रसन्नतापूर्वक मुझसे कोई वर समस्त पुत्र-पौत्रोंके साथ अपराधी व्यक्तिका संहार कर माँगो। इस भूतलपर जो दुर्लभ वस्तु होगी, वह भी तुम्हें सकते हैं-इसमें तनिक भी सन्देह नहीं है। यदि आप मिल जायगी।' पिताकी यह बात सुनकर वे सभी पुत्र इस समय यहाँ न आये होते तो मैं अपनी तपस्याके एक-दूसरेकी ओर देखते हुए उनसे बोले-'सुव्रत ! प्रभावसे आपके इस उत्तम राज्यको छीनकर किसी आपकी कृपासे हमारी माता, जो यमलोकको चली गयी दूसरेको दे डालनेका विचार कर चुका था। मेरी आँखें हैं, जी जायें।' शिवशर्माने कहा-'पुत्रो! तुम्हारी मरी हुई पुत्रवत्सला माता अभी जीवित होकर हर्षमें भरी हुई यहाँ आयेगी-इसमें तनिक भी सन्देह नहीं है।' ऋषि शिवशर्माके मुखसे यह शुभ वाक्य निकलते ही उन पुत्रोंकी माता हर्षमें भरी हुई वहाँ आ पहुँची और बोली-'मेरे सौभाग्यशाली पुत्रो! इसीलिये संसारमें पुण्यात्मा स्त्रियाँ पुण्यसाधक पुत्रकी इच्छा करती हैं। जिसका कुलके अनुरूप आचरण हो, जो अपने कुलका आधार तथा माता-पिताको तारनेवाला हो-ऐसे उत्तम पुत्रको कोई भी स्त्री पुण्यके बिना कैसे पा सकती है। न जाने मैंने कैसे-कैसे पुण्य किये थे, जिनके फलस्वरूप ये धर्मप्राण, धर्मात्मा, धर्मवत्सल तथा अत्यन्त पुण्यभागी महात्मा मुझे पतिरूपमें प्राप्त हुए। मेरे सभी पुत्र पितृभक्तिमें रत है; इससे बढ़कर प्रसन्नताकी बात और
SR No.034102
Book TitleSankshipta Padma Puran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUnknown
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages1001
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size73 MB
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